तारा रानी की कथा लिरिक्स हिंदी | Tara Rani Ki Katha Lyrics Hindi

तारा रानी की कथा लिरिक्स हिंदी

Tara Rani Ki Katha Lyrics Hindi

तारा रानी की कथा लिरिक्स हिंदी
durga mata

                   

 ।। कथा प्रारंभ।।

  तारा रानी की व्रत कथा

माता के जगराते में महारानी तारा देवी की कथा कहने-सुनने की परम्परा प्राचीन काल से चली आयी हैं। बिना इस कथा के जागरण को सम्पूर्ण नहीं माना जाता। यद्यपि पुराणों में इसका कोई उल्लेख नहीं है। तथापि माता के प्रत्येक जागरण में इसको सम्मिलित करने का परम्परागत विधान है। कथा इस प्रकार से है-

महाराज दक्ष की दो पुत्रियाँ तारा देवी एवं रुक्मन भगवती दुर्गा माँ की भक्ति में अटूट विश्वास रखती थी। दोनों बहनें नियम पूर्वक एकादशी का व्रत किया करती थीं तथा माता के जागरण में प्रेम के साथ कीर्तन एवं महात्म्य कहा-सुना करती थी। एकादशी के दिन एक बार भूल से छोटी बहिन रुक्मन ने माँसाहार कर लिया। जब तारा देवी कोपता लगा तो उसे रुक्मन पर बड़ा क्रोध आया। तारा देवी बोली-तू है तो मेरी बहन, परन्तु मनुष्य देह पाकर भी तूने नीच योनि के प्राणी जैसा कर्म किया है तू तो छिपकली बनने के योग्य है। बड़ी बहन के मुख से निकले शब्दों को रुक्मन ने शिरोधार्य कर लिया और साथ ही प्रायश्चित् का उपाय पूछा। तारा ने कहा-त्याग और परोपकार से सब पाप छूट जाते हैं। दूसरे जन्म में तारा देवी इन्द्रलोक की अप्सरा बनी और छोटी बहन रुक्मन छिपकली की योनि में प्रायश्चित् का अवसर ढूँढ़ने लगी। द्वापर युग में जब पाचों पाण्डवों ने अश्वमेध यज्ञ किया तो उन्होंने दूत भेजकर दुर्वासा ऋषि सहित तैतीस करोड़ देवी-देवताओं को निमंत्रण दिया। जब दूत दुर्वासा ऋषि के स्थान पर निमंत्रण लेकर गया तो दुर्वासा ऋषि बोले- यदि तैतीस करोड़ देवता उसमें भाग लेंगे तो मैं उसमें सम्मिलित नहीं हो सकता। दूत तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं को निमंत्रण देकर वापस पहुँचा और दुर्वासा ऋषि का वृतांत पाण्डवों को कह सुनाया कि वह सब देवताओं को बुलाने पर नहीं आयेंगे।

यज्ञ आरम्भ हुआ, तैंतीस करोड़ देवता यज्ञ में भाग लेने आए। उन्होंने दुर्वासा ऋषि जी को न देखकर पाण्डवों से पूछा कि दुर्वासा ऋषि को क्यों नहीं बुलवाया। इस पर पाण्डवों ने नम्रता सहित उत्तर दिया कि निमंत्रण भेजा था, परन्तु वे अहंकार के कारण नहीं आए, यज्ञ में पूजन हवन आदि निर्विघ्न समाप्त हुआ। भोजन के लिए भण्डारे की तैयारी होने लगी। 

दुर्वासा ऋषि ने जब देखा कि पाण्डवों ने उनकी उपेक्षा कर दी है. तो उन्होंने अत्यन्त क्रोध करके पक्षी का रूप धारण किया और चोंच में सर्प लेकर भण्डारे में फेंक दिया, जिसका किसी को पता न चला। वह सर्प खीर की कड़ाही में गिरकर छिप गया। एक छिपकली जो पिछले जन्म में तारा देवी की छोटी बहन थी तथा बहन के शब्दों को शिरोधार्य कर इस जन्म में छिपकली बनी। सर्प का भण्डारे में गिरना देख रही थी। उसे त्याग और परोपकार की शिक्षा अब तक याद थी। वह भण्डारा ग्रह में चिपकी समय की प्रतिक्षा करती रही। कई लोगों के प्राण बचाने हेतु उसने अपने प्राण न्यौछावर कर देने का मन ही मन निश्चय किया। जब खीर भण्डारे में दी जाने वाली थी तो सबकी आँखों के सामने वह छिपकली दीवार से कूदकर कढ़ाई में जा गिरी। विद्वान लोग छिपकली को बुरा-भला कहते हुए खीर की कढ़ाई को खाली करने लगे तो उन्हें मरा हुआ साँप दिखा। तब सबको मालूम हुआ कि छिपकली ने अपने प्राण देकर सबके प्राणों की रक्षा की है। इस प्रकार उपस्थित सभी सज्जनों व देवताओं ने उस छिपकली के लिए प्रार्थना की कि उसे सब योनियों में से उत्तम मनुष्य योनि प्राप्त हो तथा अन्त में मोक्ष को प्राप्त करें। तीसरे जन्म में वह छिपकली राजा ‘सपरश’ के घर कन्या बनी। दूसरी बहन तारा देवी ने फिर मनुष्य जन्म लेकर ‘तारामती’ नाम से अयोध्या के प्रतापी राजा हरिश्चन्द्र के साथ विवाह किया।

राजा सरपश ने ज्योतिषियों से कन्या की कुण्डली बनवाई। ज्योतिषयों ने राजा को बताया कि कन्या राजा के लिए हानिकारक सिद्ध होगी, शगुन ठीक नहीं है। अतः आप इसे मरवा दीजिए। राजा बोले- लड़की को मारने का पाप बहुत बड़ा है। मैं उस पाप का भागी नहीं बन सकता। ज्योतिषियों ने विचार करके राय दी कि-हे राजन्! आप एक लकड़ी के सन्दूक में ऊपर से सोना-चाँदी आदि जड़वायें, फिर उस सन्दूक के भीतर लड़की को रखकर प्रवाहित कर दीजिए। सोने-चाँदी से जड़ा हुआ लकड़ी का सन्दूक अवश्य ही कोई लालच से निकाल लेगा और आपकी कन्या को भी पाल लेगा। आपको किसी प्रकार का पाप भी नहीं लगेगा। ऐसा ही किया गया। नदी में बहता हुआ सन्दूक काशी के समीप एक भंगी को दिखाई दिया। वह सन्दूक को नदी से बाहर निकाल लाया। जब उसने संदूक खोला तो उसे सोना-चाँदी के अतिरिक्त अत्यन्त रूपवान कन्या दिखाई दी। उस भंगी के कोई संतान नहीं थी। जब उसने अपनी पत्नी को वह कन्या लाकर दी तो पत्नी की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। उसने अपनी संतान के समान ही बच्ची को छाती से लगा लिया।

भगवती की कृपा से उसके स्तनों में दूध उतर आयो। पति-पत्नी दोनों ने प्रेम से कन्या का नाम रुक्को रख दिया।

रुक्को की माँ महाराजा हरिश्चन्द्र के घर सफाई आदि का काम करने जाया करती थी। एक दिन वह बीमार पड़ गई। महाराजा की पत्नी तारामती ने जब रुक्को को देखा तो वह अपने पूर्वजन्म के पुण्य से उसे पहचान गई। तब तारामती ने रुक्को से कहा- हे बहिन! तुम मेरे निकट आकर बैठो। महारानी की बात सुनकर रुक्को बोली-महारानी मैं नीच जाति की मंगिन हूँ। भला मैं आपके पास कैसे बैठ सकती हूँ।

तब तारामती ने कहा- बहिन, पूर्वजन्म में तुम मेरी सगी बहिन थी, एकादशी व्रत खण्डित करने के कारण तुमहें छिपकली की योनि में जाना पड़ा, जो होना था सो हो चुका। अब तुम अपने इस जन्म को सुधारने का उपाय करो तथा भगवती वैष्णो माता की सेवा करके अपना जन्म सफल बनाओं। यह सुनकर रुक्को को बड़ी प्रसन्नता हुई। रुक्को ने रानी तारामती से माता की सेवा करने का उपाय पूछा । रानी ने बताया कि वैष्णों माता सब मनोरथों को पूरा करने वाली है। जो लोग श्रद्धापूर्वक माता का पूजन और जागरण करते है, उनकी सब मनोकामनाएँ पूर्ण होती है। 

रुक्को ने प्रसन्न होकर माता की मनौती करते हुए कहा- हे माता, यदि आपकी कृपा से मुझे एक पुत्र प्राप्त हो जाय तो मैं आपका पूजन और जागरण करवाऊँगी। प्रार्थना को माता ने स्वीकार कर लिया। फलस्वरूप दसवें महीने में उसके गर्भ से एक अत्यन्त सुन्दर बालक ने जन्म लिया। परन्तु दुर्भाग्यवश रुक्को को माता का पूजन जागरण करने का ध्यान ही नहीं रहा। परिणाम यह हुआ कि जब वह बालक पाँच वर्ष का हुआ, तो एक दिन उसके माता (चेचक) निकल आई। रुक्को दुःखी होकर अपने पूर्वजन्म की बहिन तारामती के पास गई और बच्चे की बीमारी का वृत्तांत कह सुनाया। तब तारामती ने कह तू जरा ध्यान करके देख कि तुझसे माता के पूजन में कोई भूल तो नहीं हुई। इस पर रुक्को को छः वर्ष पहले की बात का ध्यान आ गया और उसने अपना अपराध स्वीकार कर लिया। रुक्को मन में निश्चय किय कि बच्चे की आराम आने पर अवश्य जागरण करवाऊँगी।

भगवती की कृपा से बच्चा दूसरे दिन ही ठीक हो गया। तब रुक्को ने देवी के मन्दिर में जाकर पण्डित से कहा कि मुझे अपने घर माता का जागरण करना है, सो आप मंगलवार को मेरे घर पधारकर कृतार्थ करें। पण्डित जी बोले-अरी रुक्को, जू यही पाँच रुपये दे जा हम तेरे नाम से मन्दिर में जागरण करवा देंगे। तू नीच जाति की स्त्री है, इसलिए हम जागरण नहीं कर सकते। रुक्को ने कहा-हे पण्डित जी! माता के दरबार में तो ऊँच-नीच का कोई विचार नहीं होता, वे तो सब भक्तों पर समान रूप से कृपा करती हैं। अतः आपको कोई एतराज नहीं होना चाहिए। इस पर पण्डितों ने आपस में विचार करके कहा कि यदि महारानी तारामती तुम्हारे जागरण में पधारें तब तो हम भी स्वीकार कर लेंगे।

यह सुनकर रुक्को महारानी के पास गई और सब वृत्तांत कह सुनाया। तारामती ने जागरण में सम्मिलित होना स्वीकार कर लिया। जिस समय रुक्को पण्डित से यह कहने के लिए गई कि महारानी जी जागरण में आवेंगी, उस समय सैन नाई ने बात सुन ती और महाराजा हरिश्चन्द्र को जाकर सूचना दी। राजा ने सैन नाई से सब बात सुनकर कहा कि तेरी बात झूठी है। महारानी भंगियों के घर जागरण में नहीं जा सकती, फिर भी परीक्षा लेने के लिए उसने रात को अपनी अँगुली में थोड़ा सा चीरा लगा लिया जिससे नींद न आवे। रानी तारामती ने जब देखा कि जागरण का समय हो रहा हैं, परन्तु महाराज को नींद नहीं आ रही तो उसने माता वैष्णो से मन ही मन प्रार्थना की कि हे माता! आप किसी उपाय से राजा को सुला दें, ताकि मैं जागरण में सम्मिलित हो सकूँ। राजा को नींद आ गई। रानी तारामती रोशनदान से रस्सी बाँधकर महल से उतरी लेकिन पाँव की एक कंगन रास्ते में ही गिर पड़ी। उधर थोड़ी देर बाद ही राजा हरिश्चन्द्र की नींद खुल गई, तब वह भी रानी का पता लगाने निकल पड़े। मार्ग में कंगन व रूमाल उसने देख और जागरण वाले स्थान पर जा पहुँचा। राजा ने दोनों चीजें रास्ते से उठाकर अपने पास रख ली और जहाँ जागरण हो रहा था, वहाँ एक कोने में चुपचाप बैठकर सब दृश्य देखने लगा। जब जागरण समाप्त हुआ तो सबने माता की आरती व अरदास की। इसके बाद प्रसाद बाँटा गया। रानी तारामती को जब प्रसाद मिला तो उसने झोली में रख लिया। यह देखकर लोगों ने पूछा आपने प्रसाद क्यों नहीं खाया। यदि आप न खायेंगी तो कोई भी प्रसाद न खायेगा। रानी बोली-तुमने जो प्रसाद दिया है वह मैंने महाराज के लिए रख लिया। अब मुझे मेरा प्रसाद दे दो। अब की बार प्रसाद लेकर तारामती ने खा लिया। इसके बाद सब भक्तों ने माता का प्रसाद खाया।

इस प्रकार जागरण समाप्त करके, प्रसाद खाने के पश्चात् रानी तारामती महल की ओर चली। तब राजा ने आगे बढ़कर रास्ता रोक लिया और कहा कि तूने नीचों के घर प्रसाद खाकर अपना धर्म भ्रष्ट कर लिया, अब मैं तुझे अपने घर कैसे रखूँ? तूने तो कुल की मर्यादा और मेरी प्रतिष्ठा का भी कोई ध्यान नहीं रखा। जो प्रसाद तू अपनी झोली में रखकर लाई है, उसे खिलाकर मुझे भी अपवित्र करना चाहती है। ऐसा कहते हुए जब राजा ने झोली की ओर देखा तो भगवती की कृपा से प्रसाद के स्थान पर उसमें चम्पा, गुलाब. गेंदा के फूल, कच्चे चावल व सुपारियाँ दिखाई दी। यह चमत्कार देख राजा आश्चर्यचकित रह गया। राज हरिश्चन्द्र रानी तारामती को साथ लेकर महल लौट आया। वहाँ रानी ने ज्वाला मैय्या की शक्ति से बिना किसी माचिस या चकमक पत्थर की सहायता लिए राजा को अग्नि प्रज्जवलित करके दिखाई जिसे देखकर राजा का आश्चर्य और बढ़ गया। राजा को मन ही मन में देवी के प्रति विश्वास तथा श्रद्धा जाग उठी।

इसके बाद राजा ने रानी से कहा- मैं माता के प्रत्यक्ष दर्शन करना चाहता हूँ। रानी बोली प्रत्यक्ष दर्शन पाने के लिए बहुत बड़ा त्याग करना पड़ेगा। यदि आप अपने पुत्र रोहताश की बलि दे सकें तो आपको दुर्गा देवी के प्रत्यक्ष दर्शत भी हो सकते है। राजा के मन में तो देवी के दर्शन की लगन हो गई थी। राजा ने पुत्र मोह त्यागकर रोहताश का सिर देवी को अर्पण कर दिया। ऐसी सच्ची श्रद्धा एवं विश्वास देख दुर्गा माता सिंह पर सवार होकर उसी समय वहाँ प्रकट हो गई और राजा हरिश्चन्द्र दर्शन करके कृतार्थ हुए। 

मरा हुआ पुत्र भी जीवित हो गया। यह चमत्कार देख राजा हरिश्चन्द्र गद्गद् हो गए। उन्होंने विधिपूर्वक माता का पूजन करके अपराधों की क्षमा माँगी। सुखी रहने का आशीर्वाद देकर माता अन्तर्ध्यान हो गई। राजा ने तारामती की भक्ति की प्रशंसा करते हुए कहा- हे तारा, मैं तुम्हारे आचरण से अति प्रसन्न हूँ। मेरे धन्य भाग, जो तुम जैसी पत्नी मुझे प्राप्त हुई। इसके पश्चात् राजा हरश्चिन्द्र ने रानी तारामती की इच्छानुसार अयोध्या में माता का एक भव्य मन्दिर का निर्माण करवा दिया। आयुपर्यंन भोगने के पश्चात् राजा हरिश्चन्द्र रानी तारामती एवम् रुक्मन भंगिन तीनों को जो मनुष्य योनि से छूटकर देवलोक को प्राप्त हुए। माता के जागरण में रानी तारामती की इस कथा को जो मनुष्य श्रद्धा-भक्ति पूर्वक पढ़ता या सुनता है उसकी सारी मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं। सुख-समृद्धि बढ़ती है तथा शत्रुओं का नाश एवं सर्वमंगल होता है। इस कथा के बिना जागरण को पूरा नहीं माना जाता। 

    ।। बोलो सच्चे दरबार की जय ।।

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