सत्यनारायण व्रत कथा गीताप्रेस
पाँचवाँ अध्याय
राजा तुङ्गध्वज और गोपगणोंकी कथा
सूत उवाच
अथान्यच्च प्रवक्ष्यामि शृणुध्वं मुनिसत्तमाः। आसीत् तुङ्गध्वजो राजा प्रजापालनतत्परः ॥ १ ॥
प्रसादं सत्यदेवस्य त्यक्त्वा दुःखमवाप सः । एकदा स वनं गत्वा हत्वा बहुविधान् पशून् ॥ २ ॥
आगत्य वटमूलं च दृष्ट्वा सत्यस्य पूजनम्। गोपाः कुर्वन्ति संतुष्टा भक्तियुक्ताः सबान्धवाः ॥ ३ ॥
राजा दृष्ट्वा तु दर्पण न गतो न ननाम सः। ततो गोपगणाः सर्वे प्रसादं नृपसंनिधौ ॥ ४॥
संस्थाप्य पुनरागत्य भुक्त्वा सर्वे यथेप्सितम्। ततः प्रसादं संत्यज्य राजा दुःखमवाप सः ॥५॥
श्रीसूतजी बोले – श्रेष्ठ मुनियो ! अब इसके बाद मैं दूसरी कथा कहूँगा, आप लोग सुनें। अपनी प्रजाका पालन करनेमें तत्पर तुङ्गध्वज नामक एक राजा था। उसने सत्यदेवके प्रसादका परित्याग करके दुःख प्राप्त किया। एक बार वह वनमें जाकर और वहाँ बहुत-से पशुओंको मारकर वटवृक्षके नीचे आया। वहाँ उसने देखा कि गोपगण बन्धु-बान्धवोंके साथ संतुष्ट होकर भक्तिपूर्वक भगवान् सत्यदेवकी पूजा कर रहे हैं। राजा यह देखकर भी अहंकार वश न तो वहाँ गया और न उसने भगवान् सत्यनारायणको प्रणाम ही किया। इसके बाद (पूजनके अनन्तर) सभी गोपगण भगवान्का प्रसाद राजाके समीप रखकर वहाँसे लौट आये और इच्छानुसार उन सभीने भगवान्का प्रसाद ग्रहण किया। इधर राजाको प्रसादका परित्याग करनेसे बहुत दुःख हुआ ॥ १-५ ॥
तस्य पुत्रशतं नष्टं धनधान्यादिकं च यत्। सत्यदेवेन तत्सर्वं नाशितं मम निश्चितम् ॥ ६ ॥
अतस्तत्रैव गच्छामि यत्र देवस्य पूजनम्। मनसा तु विनिश्चित्य ययौ गोपालसन्निधौ ॥ ७॥
ततोऽसौ सत्यदेवस्य पूजां गोपगणैः सह। भक्तिश्रद्धान्वितो भूत्वा चकार विधिना नृपः ॥ ८ ॥
सत्यदेवप्रसादेन धनपुत्रान्वितोऽभवत् । इहलोके सुखं भुक्त्वा चान्ते सत्यपुरं ययौ ॥ ९॥
उसका सम्पूर्ण धन-धान्य एवं सभी सौ पुत्र नष्ट हो गये। राजाने मनमें यह निश्चय किया कि अवश्य हो भगवान् सत्यनारायणने हमारा नाश कर दिया है। इसलिये मुझे वहीं जाना चाहिये जहाँ श्रीसत्यनारायणका पूजन हो रहा था। ऐसा मनमें निश्चय करके वह राजा गोषगणोंके समीप गया और उसने गोपगणोंके साथ भक्ति-श्रद्धासे युक्त होकर विधिपूर्वक भगवान् सत्यदेवको पूजा की। भगवान् सत्यदेवकी कृपासे वह पुनः धन और पुत्रोंसे सम्पन्न हो गया तथा इस लोकमें सभी सुखोंका उपभोग कर अन्तमें सत्यपुर (वैकुण्ठलोक)- को प्राप्त हुआ॥६-९॥
य इदं कुरुते सत्यव्रतं परमदुर्लभम्। शृणोति च कथां पुण्यां भक्तियुक्तः फलप्रदाम् ॥ १० ॥
धनधान्यादिकं तस्य भवेत् सत्यप्रसादतः। दरिद्रो लभते वित्तं बद्धो मुच्येत बन्धनात् ॥ ११ ॥
भीतो भयात् प्रमुच्येत सत्यमेव न संशयः। ईप्सितं च फलं भुक्त्वा चान्ते सत्यपुरं व्रजेत् ॥ १२ ॥
इति वः कथितं विप्राः सत्यनारायणव्रतम्। यत् कृत्वा सर्वदुः खेभ्यो मुक्तो भवति मानवः ॥ १३ ॥
[श्रीसूतजी कहते हैं-] जो व्यक्ति इस परम दुर्लभ श्रीसत्यनारायणके व्रतको करता है और पुण्यमयी तथा फलप्रदायिनी भगवान्की कथाको भक्तियुक्त होकर सुनता है, उसे भगवान् सत्यनारायणकी कृपासे धन-धान्य आदिकी प्राप्ति होती है। दरिद्र धनवान् हो जाता है, बन्धनमें पड़ा हुआ बन्धनसे मुक्त हो जाता है, डरा हुआ व्यक्ति भयसे मुक्त हो जाता है-यह सत्य बात है, इसमें संशय नहीं। [इस लोकमें वह सभी ईप्सित फलोंका भोग प्राप्त करके अन्तमें सत्यपुर (वैकुण्ठलोक) को जाता है। हे ब्राह्मणो! इस प्रकार मैंने आप लोगोंसे भगवान् सत्यनारायणके व्रतको कहा, जिसे करके मनुष्य सभी दुःखोंसे मुक्त हो जाता है ॥ १०-१३ ॥
विशेषतः कलियुगे सत्यपूजा फलप्रदा। केचित् कालं वदिष्यन्ति सत्यमीशं तमेव च ॥ १४॥
सत्यनारायणं केचित् सत्यदेवं तथापरे। नानारूपधरो भूत्वा सर्वेषामीप्सितप्रदम् ॥ १५ ॥
भविष्यति कलौ सत्यव्रतरूपी सनातनः। श्रीविष्णुना धृतं रूपं सर्वेषामीप्सितप्रदम् ॥ १६ ॥
य इदं पठते नित्यं शृणोति मुनिसत्तमाः। तस्य नश्यन्ति पापानि सत्यदेवप्रसादतः ॥ १७॥
व्रतं वैस्तु कृतं पूर्व सत्यनारायणस्य च। तेषां त्वपरजन्मानि कथयामि मुनीश्वराः ॥ १८ ॥ ६५
कलियुगमें तो भगवान् सत्यदेवकी पूजा विशेष फल प्रदान करनेवाली है। भगवान् विष्णुको ही कुछ लोग काल, कुछ लोग सत्य, कोई ईश और कोई सत्यदेव तथा दूसरे लोग सत्यनारायण नामसे कहेंगे। अनेक रूप धारण करके भगवान् सत्यनारायण सभीका मनोरथ सिद्ध करते हैं। कलियुगमें सनातन भगवान् विष्णु ही सत्यव्रत-रूप धारण करके सभीका मनोरथ पूर्ण करनेवाले होंगे। हे श्रेष्ठ मुनियो। जो व्यक्ति नित्य भगवान् सत्यनारायणकी इस व्रत-कथाको पढ़ता है, सुनता है, भगवान् सत्यनारायणकी कृपासे उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। हे मुनीश्वरो! पूर्वकालमें जिन लोगोंने भगवान् सत्यनारायणका व्रत किया था, उनके अगले जन्मका वृत्तान्त कहता हूँ, आप लोग सुनें ॥ १४-१८ ॥
शतानन्दो महाप्राज्ञः सुदामा ब्राह्मणो ह्यभूत्। तस्मिञ्जन्मनि श्रीकृष्णं ध्यात्वा मोक्षमवाप ह ॥ १९ ॥
काष्ठभारवहो भिल्लो गुहराजो बभूव ह। तस्मिञ्जन्मनि श्रीरामं सेव्य मोक्षं जगाम वै ॥ २० ॥
उल्कामुखो महाराजो नृपो दशरथोऽभवत्। श्रीरङ्गनाथं सम्पूज्य श्रीवैकुण्ठं तदागमत् ॥ २१ ॥
धार्मिकः सत्यसन्धश्च साधुर्मोरध्वजोऽभवत्। देहार्धं क्रकचैश्छित्त्वा दत्त्वा मोक्षमवाप ह ॥ २२ ॥
तुङ्गध्वजो महाराजः स्वायम्भुवोऽभवत् किल । सर्वान् भागवतान् कृत्वा श्रीवैकुण्ठं तदाऽगमत् ॥ २३ ॥
भूत्वा गोपाश्च ते सर्वे व्रजमण्डलवासिनः। निहत्य राक्षसान् सर्वान् गोलोकं तु तदा ययुः ॥ २४ ॥
महान् प्रज्ञासम्पन्न शतानन्द नामके ब्राह्मण [सत्यनारायणका व्रत करनेके प्रभावसे] दूसरे जन्ममें सुदामा नामक ब्राह्मण हुए और उस जन्ममें भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया। लकड़हारा भिल्ल गुहो का राजा हुआ और अगले जन्ममें उसने भगवान् श्रीरामकी सेवा करके मोक्ष प्राप्त किया। महाराज उल्कामुख [दूसरे जन्ममें] राजा दशरथ हुए, जिन्होंने श्रीरङ्गनाथकी पूजा करके अन्तमें वैकुण्ठ प्राप्त किया। इसी प्रकार धार्मिक और सत्यव्रती साधु [पिछले जन्मके सत्यव्रतके प्रभावसे दूसरे जन्ममें] मोरध्वज नामका राजा हुआ। उसने आरेसे चीरकर अपने पुत्रकी आधी देह भगवान् विष्णुको अर्पित कर मोक्ष प्राप्त किया। महाराज तुङ्गध्वज जन्मान्तरमें स्वायम्भुव मनु हुए और भगवत्सम्बन्धी सम्पूर्ण कार्योंका अनुष्ठान करके वैकुण्ठलोकको प्राप्त हुए। जो गोपगणा थे, वे सब जन्मान्तरमें व्रजमण्डलमें निवास करनेवाले गोप हुए और सभी राक्षसोंका संहार करके उन्होंने भी भगवान का शाश्वतधाम – गोलोक प्राप्त किया ॥ १९-२४॥
।। इति श्रीस्कन्दपुराणे रेवाखण्डे श्रीसत्यनारायणव्रतकथायां पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥
॥ इस प्रकार श्रीस्कन्दपुराणके अन्तर्गत रेवाखण्डमें श्रीसत्यनारायणव्रतकथाका यह पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥५॥