सत्यनारायण व्रत कथा गीताप्रेस प्रथम अध्याय
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
अथ श्रीसत्यनारायणव्रतकथा पहला अध्याय
श्रीसत्यनारायणव्रतकी महिमा तथा व्रतकी विधि
व्यास उवाच :
एकदा नैमिषारण्ये ऋषयः शौनकादयः। पप्रच्छुर्मुनयः सर्वे सूतं पौराणिकं खलु ॥ १॥
श्रीव्यासजीने कहा- एक समय नैमिषारण्य तीर्थमें शौनक आदि सभी ऋषियों तथा मुनियोंने पुराणशास्त्रके वेत्ता श्रीसूतजी महाराजसे पूछा- ॥१॥
ऋषय ऊचुः
व्रतेन तपसा किं वा प्राप्यते वाञ्छितं फलम्। तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामः कथयस्व महामुने ॥ २ ॥
ऋषियोंने कहा- महामुने ! किस व्रत अथवा तपस्यासे मनोवाञ्छित फल प्राप्त होता है, उसे हम सब सुनना चाहते हैं, आप कहें ॥ २॥
सूत उवाच :
नारदेनैव सम्पृष्टो भगवान् कमलापतिः। सुरर्षये यथैवाह तच्छृणुध्वं समाहिताः ॥ ३ ॥
एकदा नारदो योगी परानुग्रहकाङ्गया। पर्यटन् विविधान् लोकान् मर्त्यलोकमुपागतः ॥ ४॥
ततो दृष्ट्वा जनान् सर्वान् नानाक्लेशसमन्वितान्। नानायोनिसमुत्पन्नान् क्लिश्यमानान् स्वकर्मभिः ॥ ५ ॥
केनोपायेन चैतेषां दुःखनाशो भवेद् ध्रुवम्। इति संचिन्य मनसा विष्णुलोकं गतस्तदा ॥ ६ ॥
श्रीसुतजी बोले- इसी प्रकार देवर्षि नारदजीके द्वारा भी पूछे जानेपर भगवान् कमलापतिने उनसे जैसा कहा था. उसे कह रहा हूँ, आपलोग सावधान होकर सुनें। एक समय योगी नारदजी लोगोंके कल्याणको कामनासे विविध लोकोंमें भ्रमण करते हुए मृत्युलोकमें आये और यहाँ उन्होंने अपने कर्मफलके अनुसार नाना योनियोंमें उत्पन्न सभी प्राणियोंको अनेक प्रकारके क्लेश-दुःख भोगते हुए देखा तथा ‘किस उपायसे इनके दुःखोंका सुनिक्षित रूपसे नाश हो सकता है, ऐसा मनमें विचार करके वे विष्णुलोक गये ॥ ३-६॥
तत्र नारायणं देवं शुक्लवर्णं चतुर्भुजम् । शङ्खचक्रगदापद्यवनमालाविभूषितम्
दृष्ट्वा तं देवदेवेशं स्तोतुं समुपचक्रमे ।
वहाँ चार भुजाओंवाले और शङ्ख, चक्र, गदा, पद्म तथा वनमालासे विभूषित शुक्लवर्ण भगवान् नारायणका दर्शन कर उन देवाधिदेवको वे स्तुति करने लगे ॥७॥
नारद उवाच :
नमो वाड्मनसातीतरूपायानन्तशक्तये ॥ ८ ॥
आदिमध्यान्तहीनाय निर्गुणाय गुणात्मने। सर्वेषामादिभूताय भक्तानामार्तिनाशिने ॥९॥
श्रुत्वा स्तोत्रं ततो विष्णुर्नारदं प्रत्यभाषत।
नारदजी बोले- हे वाणी और मनसे परे स्वरूपवाले, अनन्तशक्तिसम्पन्न, आदि-मध्य और अन्तसे रहित, निर्गुण और सकल कल्याणमय गुणगणों से सम्पन्न, स्थावरजङ्गमात्मक निखिल सृष्टिप्रपञ्चके कारणभूत तथा भक्तोंको पीड़ा नष्ट करने- वाले परमात्मन् ! आपको नमस्कार है। स्तुति सुननेके अनन्तर भगवान् श्रीविष्णुने नारदजीसे कहा- ॥८-९ ॥
श्रीभगवानुवाच :
किमर्थमागतोऽसि त्वं किं ते मनसि वर्तते। कथयस्व महाभाग तत्सर्वं कथयामि ते ॥ १०॥
श्रीभगवान्ने कहा – महाभाग ! आप किस प्रयोजनसे यहाँ आये हैं, आपके मनमें क्या है, कहिये, वह सब कुछ मैं सुनना चाहते हैं१० ॥
नारद उवाच :
मर्त्यलोके जनाः सर्वे नानाक्लेशसमन्विताः। नानायोनिसमुत्पन्नाः पच्यन्ते पापकर्मभिः ॥ १९ ॥
तत्कथं शमयेन्नाथ लघुपायेन तद्वद। श्रोतुमिच्छामि तत्सर्वं कृपास्ति यदि ते मयि ॥ १२ ॥
नारदजी बोले- [ भगवन् ।] मृत्युलोकमें अपने पापकर्मोंके द्वारा विभिन्न योनियोंमें उत्पन्न सभी लोग बहुत प्रकारके क्लेशोंसे दुःखी हो रहे हैं। हे नाथ! किस लघु उपायसे उनके कष्टोंका निवारण हो सकेगा, यदि आपकी मेरे ऊपर कृपा हो तो वह सब मैं सुनना चाहता हूँ। उसे बतायें ॥ ११-१२ ॥
श्रीभगवानुवाच :
साधु पृष्टं त्वया वत्स लोकानुग्रहकाङ्गया। यत्कृत्वा मुच्यते मोहात् तच्छृणुष्व वदामि ते ।। १३ ।।
व्रतमस्ति महत्पुण्यं स्वर्गे मत्यै च दुर्लभम्। तव स्नेहान्मया वत्स प्रकाशः क्रियतेऽधुना ॥ १४ ॥
सत्यनारायणस्यैव व्रतं सम्यग्विधानतः। कृत्वा सद्यः सुखं भुक्त्वा परत्र मोक्षमाप्नुयात् ।। १५ ।।
तच्छ्रुत्वा भगवद्वाक्यं नारदो मुनिरब्रवीत्।
श्रीभगवान्ने कहा- हे वत्स ! संसारके ऊपर अनुग्रह करनेकी इच्छासे आपने बहुत अच्छी (उत्तम) बात पूछी है। जिस [व्रत] के करनेसे प्राणी मोहसे मुक्त हो जाता है, उसे आपको बताता हूँ, सुनें। हे वत्स। स्वर्ग और मृत्युलोकमें दुर्लभ [भगवान् सत्यनारायणका] एक महान् पुण्यप्रद व्रत है। आपके स्नेहके कारण इस समय में उसे कह रहा हूँ। ‘अच्छी प्रकार विधि-विधानसे भगवान् सत्यनारायणका व्रत करके मनुष्य शीघ्र ही सुख प्राप्तकर परलोकमें मोक्ष प्राप्त कर सकता है। भगवान्को ऐसी बाणी सुनकर नारद मुनिने कहा- ॥ १३-15 ॥
नारद उवाच :
किं फलं किं विधानं च कृतं केनैव तद् व्रतम् ॥ १६ ॥
तत्सर्वं विस्तराद् ब्रूहि कदा कार्य व्रतं प्रभो।
नारदजी बोले- प्रभो! इस व्रतको करनेका फल क्या है, इसका विधान क्या है, इस व्रतको किसने किया
और कब इसे करना चाहिये? यह सब विस्तारपूर्वक बतलाइये ॥ १६५ ॥
श्रीभगवानुवाच :
दुःखशोकादिशमनं धनधान्यप्रवर्धनम् ॥ १७ ॥
सौभाग्यसंततिकरं सर्वत्र विजयप्रदम्। यस्मिन् कस्मिन् दिने मत्यों भक्तिश्रद्धासमन्वितः ॥ १८ ॥
सत्यनारायणं देवं यजेच्चैव निशामुखे। ब्राह्मणैर्बान्धवैश्चैव सहितो धर्मतत्परः ॥ १९ ॥
नैवेद्यं भक्तितो दद्यात् सपादं भक्ष्यमुत्तमम्। रम्भाफलं घृतं क्षीरं गोधूमस्य च चूर्णकम् ॥ २० ॥
अभावे शालिचूर्ण वा शर्करा वा गुडस्तथा। सपादं सर्वभक्ष्याणि चैकीकृत्य निवेदयेत् ॥ २१ ॥
श्रीभगवान्ने कहा– यह सत्यनारायणव्रत दुःख-शोक आदिका शमन करनेवाला, धन-धान्यको वृद्धि करनेवाला, सौभाग्य और संतान देनेवाला तथा सर्वत्र विजय प्रदान करनेवाला है। जिस किसी भी दिन भक्ति और श्रद्धासे समन्वित होकर मनुष्य ब्राह्मणों और बन्धु-बान्धवोंके साथ धर्ममें तत्पर होकर सायंकाल भगवान सत्यनारायण की पूजा करे। नैवैद्यके रूपमें उत्तम कोटिके भोजनीय पदार्थको सवाया मात्रामें भक्तिपूर्वक अर्पित करना चाहिये। केलेका फल, घी, दूध, गेहूँका चूर्ण अथवा गेहूँके चूर्णके अभावमें साठी चावलका चूर्ण, शक्कर या गुड़-यह सब भक्ष्य सामग्री सवाया मात्रामें एकत्र कर निवेदित करनी चाहिये ॥ १७-२१ ॥
विप्राय दक्षिणां दद्यात् कथां श्रुत्वा जनैः सह । ततश्च बन्धुभिः सार्धं विप्रांश्च प्रतिभोजयेत् ॥ २२ ॥
प्रसादं भक्षयेद् भक्त्या नृत्यगीतादिकं चरेत्। ततश्च स्वगृहं गच्छेत् सत्यनारायणं स्मरन् ॥ २३ ॥
एवं कृते मनुष्याणां वाञ्छासिद्धिर्भवेद् ध्रुवम् । विशेषतः कलियुगे लघूपायोऽस्ति भूतले ॥ २४ ॥
बन्धु-बान्धवोंके साथ श्रीसत्यनारायण भगवान्की कथा सुनकर ब्राह्मणको दक्षिणा देनी चाहिये। तदनन्तर बन्धु-बान्धवोंके साथ ब्राह्मणोंको भोजन कराना चाहिये। भक्तिपूर्वक प्रसाद ग्रहण करके नृत्य-गीत आदिका आयोजन करना चाहिये। तदनन्तर भगवान् सत्यनारायणका स्मरण करते हुए अपने घर जाना चाहिये। ऐसा करनेसे मनुष्योंकी अभिलाषा अवश्य ही पूर्ण होती है। विशेष रूपसे कलियुगमें, पृथ्वीलोकमें यह सबसे छोटा-सा उपाय है ॥ २२-२४ ॥
॥ इति श्रीस्कन्दपुराणे रेवाखण्डे श्रीसत्यनारायणव्रतकथायां प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥
॥ इस प्रकार श्रोस्कन्दपुराणके अन्तर्गत रेवाखण्डमें श्रीसत्यनारायणब्रतकथाका यह पहला अध्याय पूरा हुआ ॥ १