राजा हरिश्चन्द्र कहानी
Raja Harischandra Story : राजा हरिश्चन्द्र कहानी लिरिक्स
सत्यवादी महाराज हरिश्चन्द्र
त्रिशंकु के पुत्र महाराज हरिश्चन्द्र भगवती शाकम्भरी के परम भक्त एवं अद्भुत सत्यवादी थे। एक बार वे शिकार खेलने के लिये जंगल में गये। वहाँ उन्हें विलाप करती हुई एक सुन्दरी स्त्री मिली। महाराज के द्वारा रोनेका कारण पूछने पर उसने कहा कि ‘मैं विश्वामित्र के कारण अत्यन्त दुःखी हूँ। वे तपस्या कर रहे हैं। यदि आप मुझे सुखी करना चाहते हैं तो किसी उपायसे उन्हें तपस्यासे विरत करनेकी कृपा करें।’ महाराज ने उसे आश्वस्त करके घर भेज दिया और विश्वामित्र मुनि को तपस्या करने से रोक दिया। महाराज हरिश्चन्द्र की इस क्रिया से विश्वामित्र क्रोधित हो गये और वे तपस्या छोड़कर अपने स्थान को चले गये। अपने अपमानका बदला लेने के लिये उन्होंने भयंकर सूकर के रूपमें एक दानव को हरिश्चन्द्र के नगर में भेजा। उस भयानक सूकर ने नगर में पहुँचकर महाराज के उपवन को उजाड़ डाला। महाराज हरिश्चन्द्र ने उस भयंकर सूकर को मारनेके लिये उसका पीछा किया। वनमें पहुँचकर वह सूकर अदृश्य हो गया और महाराज मार्ग भूल गये। अचानक एक ब्राह्मण के वेशमें विश्वामित्र प्रकट हुए और उन्होंने गान्धर्वी माया से महाराज हरिश्चन्द्र को मोहित कर दिया। उन्होंने एक कन्या और पुत्र के विवाहके बहाने अयोध्या का सम्पूर्ण राज्य महाराज हरिश्चन्द्र से दान में ले लिया।
दक्षिणा के लिये महाराज हरिश्चन्द्र को काशी में पहुँचकर पत्नी तथा स्वयं को बेच देना पड़ा। महारानी शैव्या एक ब्राह्मण की दासी बनीं। बड़ी कठिनाई से उस ब्राह्मण ने उनके पुत्र रोहिताश्व को साथ रखने की अनुमति प्रदान की। महाराज हरिश्चन्द्र ने अपने-आपको चाण्डाल के हाथों बेचकर विश्वामित्र की दक्षिणा चुकायी। अब वे श्मशान में शवदाह करनेवालों से कर वसूला करते थे, किंतु विपत्ति यहीं समाप्त नहीं हुई। एक दिन ब्राह्मण की समिधा एकत्र करके लाते समय रोहिताश्व को सर्प ने डॅस लिया। महारानी शैव्या पुत्र की मृत्यु का समाचार सुनकर शोक-सागर में डूब गयीं। बहुत अनुनय-विनय करने पर ब्राह्मण ने घरका सारा काम निपटाने के बाद रात्रि में उन्हें पुत्रके अन्त्येष्टि कर्म करनेकी अनुमति प्रदान की। जिस समय वे अपने प्राणप्रिय पुत्र की लाश से लिपटकर विलाप कर रही थीं, गाँववालों ने महारानी को बच्चे को खा जाने वाली डायन समझा और उन्हें पकड़कर चाण्डाल के न्यायालय में प्रस्तुत किया। चाण्डाल ने हरिश्चन्द्र को ही रानी का मस्तक काटने का आदेश दिया। शोक से ग्रस्त महारानी ने पुत्र की लाश श्मशान में जलाने तक की अनुमति माँगी।
घोर अन्धकारमयी रात्रि में श्मशान पहुँचने पर अचानक बिजली चमकी और उसके प्रकाशमें महाराज हरिश्चन्द्रने पत्नी और पुत्र को पहचान लिया। शोक से व्याकुल होकर पति-पत्नी दोनों अचेत होकर गिर पड़े। चेत होने पर राजा और रानी दोनोंने ही पुत्रके साथ ही आत्मदाह करने का निश्चय किया। महाराज हरिश्चन्द्रने चिता तैयार की और उसपर अपने पुत्र रोहित को सुला दिया। आत्मदाह के पूर्व पति-पत्नी दोनों जगत्की अधिष्ठात्री भगवती भुवनेश्वरी का ध्यान करने लगे। अचानक श्मशान दिव्य ज्योति से आलोकित हो उठा। भगवान् नारायणके सहित सम्पूर्ण देवता श्मशान भूमि में पधारे। स्वर्ग से अमृत की वर्षा हुई और रोहित स्वस्थ होकर उठ बैठे।
इन्द्रने कहा-‘महाराज! अब आप पत्नी सहित स्वर्ग को सुशोभित करें। यह सर्वोत्कृष्ट गति आपके ही कर्मों का फल है। पुण्यात्मा पुरुष ही उस पद के अधिकारी हैं।’
चाण्डाल ने कहा-‘राजन् ! आपने अपनी सेवा से मुझे सन्तुष्ट कर दिया है। अब आप स्वतन्त्र हैं।’ हरिश्चन्द्र ने देखा कि उनका स्वामी चाण्डाल और कोई नहीं साक्षात् धर्मराज हैं। विश्वामित्र ने अयोध्या का राज्य महाराज हरिश्चन्द्र को वापस कर दिया और कुमार रोहिताश्व का अयोध्या के राज्यपदपर अभिषेक हुआ। अन्त में महाराज हरिश्चन्द्र ने पत्नी और अयोध्या की प्रजा के साथ स्वर्गके लिये प्रस्थान किया।