Pauranik Kathaye : पौराणिक कथाएँ लिरिक्स हिन्दी शुकदेव और राजा जनक की कथा

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पौराणिक कथाएँ

।।महामुनि शुकदेव एवं तत्त्वज्ञानी जनक।

Pauranik Kathaye : पौराणिक कथाएँ लिरिक्स हिन्दी शुकदेव और राजा जनक की कथा

पुत्रप्राप्तिकी कामनासे भगवान् व्यासने भगवान् शंकरकी उपासना की, जिसके फलस्वरूप उन्हें शुकदेवजी पुत्ररूपमें प्राप्त हुए। व्यासजीने शुकदेवजीके जातकर्म, यज्ञोपवीत आदि सभी संस्कार सम्पन्न किये। गुरुकुलमें रहकर शुकदेवजीने शीघ्र ही सम्पूर्ण वेदों एवं अखिल धर्मशास्त्रोंमें अद्भुत पाण्डित्य प्राप्त कर लिया। गुरुगृहसे लौटनेके बाद व्यासजीने पुत्रका प्रसन्नतापूर्वक स्वागत किया। उन्होंने शुकदेवजीसे कहा- ‘पुत्र! तुम बड़े बुद्धिमान् हो। तुमने वेद और धर्मशास्त्र पढ़ लिये। अब अपना विवाह कर लो और गृहस्थ बनकर देवताओं तथा पितरोंका यजन करो!’
 
शुकदेवजीने कहा-‘पिताजी ! गृहस्थाश्रम सदा कष्ट देनेवाला है। महाभाग! मैं आपका औरस पुत्र हूँ। आप मुझे इस अन्धकारपूर्ण संसारमें क्यों ढकेल रहे हैं? स्त्री, पुत्र, पौत्रादि सभी परिजन दुःखपूर्तिके ही साधन हैं। इनमें सुखकी कल्पना करना भ्रममात्र है। जिसके प्रभावसे अविद्याजन्य काँका अभाव हो जाय, आप मुझे उसी ज्ञानका उपदेश करें।’
 
व्यासजीने कहा- ‘पुत्र! तुम बड़े भाग्यशाली हो। मैंने देवीभागवतकी रचना की है। तुम इसका अध्ययन करो। सर्वप्रथम आधे श्लोकमें इस पुराणका ज्ञान भगवती पराशक्तिने भगवान् विष्णुको देते हुए कहा है-‘यह सारा जगत् मैं ही हूँ, मेरे सिवा दूसरी कोई अविनाशी वस्तु है ही नहीं।’ भगवान् विष्णुसे यह ज्ञान ब्रह्माजीको मिला और ब्रह्माजीने इसे नारदजीको बताया तथा नारदजीसे यह मुझे प्राप्त हुआ। फिर मैंने इसकी बारह स्कन्धोंमें व्याख्या की। महाभाग! तुम इस वेदतुल्य देवीभागवतका अध्ययन करो। इससे तुम संसारमें रहते हुए मायासे अप्रभावित रहोगे।’
 
व्यासजीके उपदेशके बाद भी जब शुकदेवजीको शान्ति नहीं मिली, तब उन्होंने कहा- ‘बेटा! तुम जनकजीके पास मिथिलापुरीमें जाओ। वे जीवन्मुक्त ब्रह्मज्ञानी हैं। वहाँ तुम्हारा अज्ञान दूर हो जायगा। तदनन्तर तुम यहाँ लौट आना और सुखपूर्वक मेरे आश्रममें निवास करना।’ व्यासजीके आदेशसे शुकदेवजी मिथिला पहुँचे। वहाँ द्वारपालने उन्हें रोक दिया, तब काठकी भाँति मुनि वहीं खड़े हो गये। उनके ऊपर मान-अपमानका कोई असर नहीं पड़ा। कुछ समय
 
बाद राजमन्त्री उन्हें विलासभवनमें ले गये। वहाँ शुकदेवजीका विधिवत् आतिथ्य सत्कार किया
 
गया, किन्तु शुकदेवजीका मन वहाँ भी विकारशून्य बना रहा। अन्तमें उन्हें महाराज जनकके समक्ष
 
प्रस्तुत किया गया। महाराज जनकने उनका आतिथ्य सत्कार करनेके बाद पूछा- ‘महाभाग! आप
 
बड़े निःस्पृह महात्मा हैं। किस कार्यसे आप यहाँ पधारे हैं, बतानेकी कृपा करें।’
 
शुकदेवजी बोले -‘राजन् ! मेरे पिता व्यासजीने मुझे विवाह करके गृहस्थाश्रममें प्रवेश करनेकी आज्ञा दी है। मैंने उसे बन्धनकारक समझकर अस्वीकार कर दिया। मैं संसार-बन्धनसे मुक्त होना चाहता हूँ। आप मेरा मार्गदर्शन करनेकी कृपा करें।’ महाराज जनकने कहा- ‘परंतप ! मनुष्योंको बन्धनमें डालने और मुक्त करनेमें केवल मन ही
 
कारण है। विषयी मन बन्धन और निर्विषयी मन मुक्तिका प्रदाता है। अविद्याके कारण ही जीव और ब्रह्ममें भेदबुद्धिकी प्रतीति होती है। महाभाग! अविद्या विद्या अर्थात् ब्रह्मज्ञानसे शान्त होती है। यह देह मेरी है, यही बन्धन है और यह देह मेरी नहीं है, यही मुक्ति है। बन्धन शरीर और घरमें नहीं है, अहंता और ममतामें है।’ जनकजीके उपदेशसे शुकदेवजीकी सारी शंकाएँ नष्ट हो गयीं। वे पिताके आश्रममें लौट आये। फिर उन्होंने पितरोंकी सुन्दरी कन्या पीवरीसे विवाह करके गृहस्थाश्रमके नियमोंका पालन किया, तदनन्तर संन्यास लेकर मुक्ति प्राप्त किया।

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