पौराणिक कहानियां
।।मधु-कैटभकी कथा।।
।।मधु-कैटभकी कथा।।
प्राचीन समयकी बात है। चारों ओर जल-ही-जल था, केवल भगवान् विष्णु शेषनागकी शय्यापर सोये हुए थे। उनके कानकी मैलसे मधु और कैटभ नामके दो महापराक्रमी दानव उत्पन्न हुए। वे सोचने लगे कि हमारी उत्पत्तिका कारण क्या है? कैटभने कहा- ‘भैया मधु! इस जलमें हमारी सत्ताको कायम रखनेवाली भगवती महाशक्ति ही हैं। उनमें अपार बल है। उन्होंने ही इस जलतत्त्वकी रचना की है। वे ही परम आराच्या शक्ति हमारी उत्पत्तिकी कारण हैं।’ इतनेमें ही आकाशमें गूँजता हुआ सुन्दर ‘वाग्बीज’ सुनायी पड़ा। उन दोनोंने सोचा कि यही भगवतीका महामन्त्र है। अब वे उसी मन्त्रका ध्यान और जप करने लगे। अन्न और जलका त्याग करके उन्होंने एक हजार वर्षतक बड़ी कठिन तपस्या की। भगवती महाशक्ति उनपर प्रसन्न हो गयीं। अन्तमें
आकाशवाणी हुई -‘दैत्यो! तुम्हारी तपस्यासे मैं प्रसन्न हूँ। इच्छानुसार वर माँगो !” आकाशवाणी सुनकर मधु और कैटभने कहा-‘सुन्दर व्रतका पालन करनेवाली देवि! तुम हमें स्वेच्छामरणका वर देनेकी कृपा करो।’ देवीने कहा-‘दैत्यो! मेरी कृपासे इच्छा करनेपर ही मौत तुम्हें मार सकेगी। देवता और दानव कोई भी तुम दोनों भाइयोंको पराजित नहीं कर सकेंगे।’
देवीके वर देनेपर मधु और कैटभको अत्यन्त अभिमान हो गया। वे समुद्रमें जलचर जीवोंके साथ क्रीड़ा करने लगे। एक दिन अचानक प्रजापति ब्रह्माजीपर उनकी दृष्टि पड़ी। ब्रह्माजी कमलके आसनपर विराजमान थे। उन दैत्योंने ब्रह्माजीसे कहा-‘सुव्रत! तुम हमारे साथ युद्ध करो। यदि लड़ना नहीं चाहते तो इसी क्षण यहाँसे चले जाओ; क्योंकि यदि तुम्हारे अन्दर शक्ति नहीं है तो इस उत्तम आसनपर बैठनेका तुम्हें कोई अधिकार नहीं है।’ मधु और कैटभकी बात सुनकर ब्रह्माजीको अत्यन्त चिन्ता हुई। उनका सारा समय तपमें बीता था। युद्ध करना उनके स्वभावके प्रतिकूल था। भयभीत होकर वे भगवान् विष्णुकी शरणमें गये। उस समय भगवान् विष्णु योगनिद्रामें निमग्न थे। ब्रह्माजीके बहुत प्रयास करनेपर भी उनकी निद्रा नहीं टूटी। अन्तमें उन्होंने भगवती योगनिद्राकी स्तुति करते हुए कहा-‘भगवति! मैं मधु और कैटभके भवसे भयभीत होकर तुम्हारी शरणमें आया हूँ। भगवान् विष्णु तुम्हारी मायासे अचेत पड़े हैं। तुम सम्पूर्ण जगत्की माता हो। सभीका मनोरथ पूर्ण करना तुम्हारा स्वभाव है। तुमने ही मुझे जगत्स्त्रष्टा बनाया है। यदि में दैत्योंके हाथसे मारा गया तो तुम्हारी बड़ी अपकीर्ति होगी। अतः तुम भगवान् विष्णुको जगाकर मेरी रक्षा करो।’
ब्रह्माजीकी प्रार्थना सुनकर भगवती भगवान् विष्णुके नेत्र, मुख, नासिका, बाहु और हृदयसे निकलकर आकाशमें स्थित हो गयीं और भगवान् उठकर बैठ गये। तदनन्तर उनका मधु और कैटभसे पाँच हजार वर्षोंतक घोर युद्ध हुआ, फिर भी वे उन्हें परास्त करनेमें असफल रहे। विचार करनेपर भगवान्को ज्ञात हुआ कि इन दोनों दैत्योंको भगवतीने इच्छामृत्युका वर दिया है। भगवतीकी कृपाके बिना इनको मारना असम्भव है। इतनेमें ही उन्हें भगवती योगनिद्राके दर्शन हुए। भगवान्ने रहस्यपूर्ण शब्दोंमें भगवतीकी स्तुति की। भगवतीने प्रसन्न होकर कहा-‘विष्णु ! तुम देवताओंके स्वामी हो। मैं इन दैत्योंको मायासे मोहित कर दूँगी, तब तुम इन्हें मार डालना।’
भगवतीका अभिप्राय समझकर भगवान्ने दैत्योंसे कहा कि तुम दोनोंके युद्धसे मैं परम प्रसन्न हूँ। अतः मुझसे इच्छानुसार वर माँगो। दैत्य भगवतीकी मायासे मोहित हो चुके थे। उन्होंने कहा- ‘विष्णो! हम याचक नहीं हैं, दाता हैं। तुम्हें जो माँगना हो हमसे प्रार्थना करो। हम देनेके लिये तैयार हैं।’ भगवान् बोले- ‘यदि देना ही चाहते हो तो मेरे हाथोंसे मृत्यु स्वीकार करो।’ भगवतीकी कृपासे मोहित होकर मधु और कैटभ अपनी ही बातोंसे ठगे गये। भगवान् विष्णुने दैत्योंके मस्तकोंको अपने जाघोंपर रखवाकर सुदर्शन चक्रसे काट डाला। इस प्रकार मधु और कैटभका अन्त हुआ।