दशमहाविद्या देवी कौन सी है। दशमहाविद्या के नाम Dashmahavidhya Devi Kaun Si Hoti Hai

दशमहाविद्या देवी कौन सी है। दशमहाविद्या के नाम Dashmahavidhya Devi Kaun Si Hoti Hai

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दशमहाविद्या देवी
 ।। ॐ श्रीपरमात्मने नमः ।।
दशमहाविद्या देवी कौन सी है। दशमहाविद्या के नाम Dashmahavidhya Devi Kaun Si Hoti Hai

   1 ।।काली।।


दस महाविद्याओंमें काली प्रथम हैं। महाभागवतके अनुसार महाकाली ही मुख्य हैं और उन्हींके उग्र और सौम्य दो रूपोंमें अनेक रूप धारण करनेवाली दस महाविद्याएँ हैं। विद्यापति भगवान् शिवकी शक्तियाँ ये महाविद्याएँ अनन्त सिद्धियाँ प्रदान करनेमें समर्थ हैं। दार्शनिक दृष्टिसे भी कालतत्त्वकी प्रधानता सर्वोपरि है। इसलिये महाकाली या काली ही समस्त विद्याओंकी आदि हैं अर्थात् उनकी विद्यामय विभूतियाँ ही महाविद्याएँ हैं। ऐसा लगता है कि महाकालकी प्रियतमा काली ही अपने दक्षिण और वाम रूपोंमें दस महाविद्याओंके नामसे विख्यात हुईं। बृहन्नीलतन्त्रमें कहा गया है कि रक्त और कृष्णभेदसे काली ही दो रूपोंमें अधिष्ठित हैं। कृष्णाका नाम ‘दक्षिणा’ और रक्तवर्णाका नाम ‘सुन्दरी’ है।

कालिकापुराणमें कथा आती है कि एक बार हिमालयपर अवस्थित मतंग मुनिके आश्रममें जाकर देवताओंने महामायाकी स्तुति की। स्तुतिसे प्रसन्न होकर मतंग वनिताके रूपमें भगवतीने देवताओंको दर्शन दिया और पूछा कि तुमलोग किसकी स्तुति कर रहे हो। उसी समय देवीके शरीरसे काले पहाड़के समान वर्णवाली एक और दिव्य नारीका प्राकट्य हुआ। उस महातेजस्विनीने स्वयं ही देवताओंकी ओरसे उत्तर दिया कि ‘ये लोग मेरा ही स्तवन कर रहे हैं।’ वे काजलके समान कृष्णा थीं, इसीलिये उनका नाम ‘काली’ पड़ा।

दुर्गासप्तशतीके अनुसार एक बार शुम्भ-निशुम्भके अत्याचारसे व्यथित होकर देवताओंने हिमालयपर जाकर देवीसूक्तसे देवीकी स्तुति की, तब गौरीकी देहसे कौशिकीका प्राकट्य हुआ। कौशिकीके अलग होते ही अम्बा पार्वतीका स्वरूप कृष्ण हो गया, जो ‘काली’ नामसे विख्यात हुईं। कालीको नीलरूपा होनेके कारण तारा भी कहते हैं। नारद-पाञ्चरात्रके अनुसार एक बार कालीके मनमें आया कि वे पुनः गौरी हो जायँ। यह सोचकर वे अन्तर्धान हो गयीं। शिवजीने नारदजीसे उनका पता पूछा। नारदजीने उनसे सुमेरुके उत्तरमें देवीके प्रत्यक्ष उपस्थित होनेकी बात कही। शिवजीकी प्रेरणासे नारदजी वहाँ गये। उन्होंने देवीसे शिवजीके साथ विवाहका प्रस्ताव रखा। प्रस्ताव सुनकर देवी कुद्ध हो गयीं और उनकी देहसे एक अन्य षोडशी विग्रह प्रकट हुआ और उससे छायाविग्रह त्रिपुरभैरवीका प्राकट्य हुआ।

कालीकी उपासनामें सम्प्रदायगत भेद है। प्रायः दो रूपोंमें इनकी उपासनाका प्रचलन है। भव- बन्धन-मोचनमें कालीकी उपासना सर्वोत्कृष्ट कही जाती है। शक्ति-साधनाके दो पीठोंमें कालीकी उपासना श्याम-पीठपर करनेयोग्य है। भक्तिमार्गमें तो किसी भी रूपमें उन महामायाकी उपासना फलप्रदा है, पर सिद्धिके लिये उनकी उपासना वीरभावसे की जाती है। साधनाके द्वारा जब अहंता, ममता और भेद-बुद्धिका नाश होकर साधकमें पूर्ण शिशुत्वका उदय हो जाता है, तब कालीका श्रीविग्रह साधकके समक्ष प्रकट हो जाता है। उस समय भगवती कालीकी छबि अवर्णनीय होती है। कजलके पहाड़के समान, दिग्वसना, मुक्तकुन्तला, शवपर आरूढ़, मुण्डमालाधारिणी भगवती कालीका प्रत्यक्ष दर्शन साधकको कृतार्थ कर देता है। तान्त्रिक मार्गमें यद्यपि कालीकी उपासना दीक्षागम्य है, तथापि अनन्य शरणागतिके द्वारा उनकी कृपा किसीको भी प्राप्त हो सकती है। मूर्ति, मन्त्र अथवा गुरुद्वारा उपदिष्ट किसी भी आधारपर भक्तिभावसे, मन्त्र जप, पूजा, होम और पुरश्चरण करनेसे भगवती काली प्रसन्न हो जाती हैं। उनकी प्रसन्नतासे साधकको सहज ही सम्पूर्ण अभीष्टोंकी प्राप्ति हो जाती है।

२- तारा

भगवती कालीको ही नीलरूपा होनेके कारण तारा भी कहा गया है। वचनान्तरसे तारा नामका रहस्य यह भी है कि ये सर्वदा मोक्ष देनेवाली, तारनेवाली हैं, इसलिये इन्हें तारा कहा जाता है। महाविद्याओंमें ये द्वितीय स्थानपर परिगणित हैं। अनायास ही वाक्शक्ति प्रदान करनेमें समर्थ हैं, इसलिये इन्हें नीलसरस्वती भी कहते हैं। भयंकर विपत्तियोंसे भक्तोंकी रक्षा करती हैं, इसलिये उग्रतारा हैं। बृहन्नील-तन्त्रादि ग्रन्थोंमें भगवती ताराके स्वरूपकी विशेष चर्चा है। हयग्रीवका वध करनेके लिये इन्हें नील-विग्रह प्राप्त हुआ था। ये शवरूप शिवपर प्रत्यालीढ़ मुद्रामें आरूढ़ हैं। भगवती तारा नीलवर्णवाली, नीलकमलोंके समान तीन नेत्रोंवाली तथा हाथोंमें कैंची, कपाल, कमल और खड्ग धारण करनेवाली हैं। ये व्याघ्रचर्मसे विभूषिता तथा कण्ठमें मुण्डमाला धारण करनेवाली हैं।
शत्रुनाश, वाक्-शक्तिकी प्राप्ति तथा भोग-मोक्षकी प्राप्तिके लिये तारा अथवा उग्रताराकी साधना की जाती है। रात्रिदेवीकी स्वरूपा शक्ति तारा महाविद्याओंमें अद्भुत प्रभाववाली और सिद्धिकी अधिष्ठात्री देवी कही गयी हैं। भगवती ताराके तीन रूप हैं-तारा, एकजटा और नीलसरस्वती। तीनों रूपोंके रहस्य, कार्य-कलाप तथा ध्यान परस्पर भिन्न हैं, किन्तु भिन्न होते हुए सबकी शक्ति समान और एक है। भगवती ताराकी उपासना मुख्यरूपसे तन्त्रोक्त पद्धतिसे होती है, जिसे आगमोक्त पद्धति भी कहते हैं। इनकी उपासनासे सामान्य व्यक्ति भी बृहस्पतिके समान विद्वान् हो जाता है।
 
भारतमें सर्वप्रथम महर्षि वसिष्ठने ताराकी आराधना की थी। इसलिये ताराको वसिष्ठाराधिता तारा भी कहा जाता है। वसिष्ठने पहले भगवती ताराकी आराधना वैदिक रीतिसे करनी प्रारम्भ की, जो सफल न हो सकी। उन्हें अदृश्यशक्तिसे संकेत मिला कि वे तान्त्रिक पद्धतिके द्वारा जिसे ‘चिनाचारा’ कहा जाता है, उपासना करें। जब वसिष्ठने तान्त्रिक पद्धतिका आश्रय लिया, तब उन्हें सिद्धि प्राप्त हुई। यह कथा ‘आचार’ तन्त्रमें वसिष्ठ मुनिकी आराधना उपाख्यानमें वर्णित है। इससे यह सिद्ध होता है कि पहले चीन, तिथ्यत, लद्दाख आदिमें ताराकी उपासना प्रचलित थी। ताराका प्रादुर्भाव मेरु-पर्वतके पश्चिम भागमें ‘चोलना’ नामकी नदीके या चोलत सरोवरके
तटपर हुआ था, जैसा कि स्वतन्त्रतन्त्रमें वर्णित है-
 
मेरोः पश्चिमकूले नु चोत्रताख्यो हृदो महान्।
तत्र जज्ञे स्वयं तारा देवी नीलसरस्वती ।। 
‘महाकाल-संहिता के काम-कलाखण्डमें तारा-रहस्य वर्णित है, जिसमें तारारात्रिमें ताराकी उपासनाका विशेष महत्त्व है। चैत्र शुक्ल नवमीकी रात्रि ‘तारारात्रि’ कहलाती है-     
चैत्रे मासि नवम्यां तु शुक्लपक्षे तु भूपते ।
क्रोधरात्रिर्महेशानि तारारूपा भविष्यति ।। 
 
बिहारके सहरसा जिलेमें प्रसिद्ध ‘महिषी’ ग्राममें उग्रताराका सिद्धपीठ विद्यमान है। वहाँ तारा, एकजटा तथा नीलसरस्वतीकी तीनों मूर्तियाँ एक साथ हैं। मध्यमें बड़ी मूर्ति तथा दोनों तरफ छोटी मूर्तियाँ हैं। कहा जाता है कि महर्षि वसिष्ठने यहीं ताराकी उपासना करके सिद्धि प्राप्त की थी। तन्त्रशास्त्रके प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘महाकाल-संहिता ‘के गुहा काली-खण्डमें महाविद्याओंकी उपासनाका विस्तृत वर्णन है, उसके अनुसार ताराका रहस्य अत्यन्त चमत्कारजनक है।

३-छिन्नमस्ता

परिवर्तनशील जगत्का अधिपति कबन्ध है और उसकी शक्ति ही छिन्नमस्ता है। विश्वकी वृद्धि- हास तो सदैव होती रहती है। जब हासकी मात्रा कम और विकासकी मात्रा अधिक होती है, तब भुवनेश्वरीका प्राकटा होता है। इसके विपरीत जब निर्गम अधिक और आगम कम होता है, तब छिन्नमस्ताका प्राधान्य होता है।
भगवती छिन्नमस्ताका स्वरूप अत्यन्त ही गोपनीय है। इसे कोई अधिकारी साधक ही जान सकता है। महाविद्याओंमें इनका तीसरा स्थान है। इनके प्रादुर्भावकी कथा इस प्रकार है- एक बार भगवती भवानी अपनी सहचरी जया और विजयाके साथ मन्दाकिनीमें स्नान करनेके लिये गयीं। स्रानोपरान्त क्षुधाग्निसे पीड़ित होकर वे कृष्णवर्णकी हो गयीं। उस समय उनकी सहचरियोंने भी उनसे कुछ भोजन करनेके लिये माँगा। देवीने उनसे कुछ समय प्रतीक्षा करनेके लिये कहा। थोड़ी देर प्रतीक्षा करनेके बाद सहचरियोंने जब पुनः भोजनके लिये निवेदन किया, तब देवीने उनसे कुछ देर और प्रतीक्षा करनेके लिये कहा। इसपर सहचरियोंने देवीसे विनम्र स्वरमें कहा कि ‘माँ तो अपने शिशुओंको भूख लगनेपर अविलम्ब भोजन प्रदान करती है। आप हमारी उपेक्षा क्यों कर रही हैं?’ अपने सहचरियोंके मधुर वचन सुनकर कृपामयी देवीने अपने खड्गसे अपना सिर काट दिया। कटा हुआ सिर देवीके बायें हाथमें आ गिरा और उनके कबन्धसे रक्तकी तीन धाराएँ प्रवाहित हुई। वे दो धाराओंको अपनी दोनों सहचरियोंकी ओर प्रवाहित कर दीं, जिसे पीती हुई दोनों प्रसन्न होने लगीं और तीसरी धाराको देवी स्वयं पान करने लगीं। तभीसे देवी छिन्नमस्ताके नामसे प्रसिद्ध हुई।
 
ऐसा विधान है कि आधी रात अर्थात् चतुर्थ संध्याकालमें छिन्नमस्ताकी उपासनासे साधकको सरस्वती सिद्ध हो जाती हैं। शत्रु-विजय, समूह स्तम्भन, राज्य-प्राप्ति और दुर्लभ मोक्ष-प्राप्तिके लिये छिन्नमस्ताकी उपासना अमोघ है। छिन्नमस्ताका आध्यात्मिक स्वरूप अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। छिन्न यज्ञशीर्षकी प्रतीक ये देवी श्वेतकमल-पीठपर खड़ी हैं। दिशाएँ ही इनके वस्त्र हैं। इनकी नाभिमें योनिचक्र है। कृष्ण (तम) और रक्त (रज) गुणोंकी देवियाँ इनकी सहचरियाँ हैं। ये अपना शीश काटकर भी जीवित हैं। यह अपने आपमें पूर्ण अन्तर्मुखी साधनाका संकेत है।
 
विद्वानोंने इस कथामें सिद्धिकी चरम सीमाका निर्देश माना है। योगशास्त्रमें तीन ग्रन्थियाँ बतायी गयी हैं, जिनके भेदनके बाद योगीको पूर्ण सिद्धि प्राप्त होती है। इन्हें ब्रह्मग्रन्थि, विष्णुग्रन्थि तथा रुद्रग्रन्थि कहा गया है। मूलाधारमें ब्रह्मग्रन्थि, मणिपूरमें विष्णुग्रन्थि तथा आज्ञाचक्रमें रुद्रग्रन्थिका स्थान है। इन ग्रन्थियोंके भेदनसे ही अद्वैतानन्दकी प्राप्ति होती है। योगियोंका ऐसा अनुभव है कि मणिपूर चक्रके नीचेकी नाड़ियोंमें ही काम और रतिका मूल है, उसीपर छिन्ना महाशक्ति आरूढ़ है, इसका ऊर्ध्व प्रवाह होनेपर रुद्रग्रन्थिका भेदन होता है।
 
छिन्नमस्ताका वज्र वैरोचनी नाम शाक्तों, बौद्धों तथा जैनोंमें समान रूपसे प्रचलित है। देवीकी दोनों सहचरियाँ रजोगुण तथा तमोगुणकी प्रतीक हैं, कमल विश्वप्रपञ्च है और कामरति चिदानन्दकी स्थूलवृत्ति है। बृहदारण्यककी अश्वशिर-विद्या, शाक्तोंकी हयग्रीव विद्या तथा गाणपत्योंके छिन्नशीर्ष गणपतिका रहस्य भी छिन्नमस्तासे ही सम्बन्धित है। हिरण्यकशिपु, वैरोचन आदि छिन्नमस्ताके ही उपासक थे। इसीलिये इन्हें वज्र वैरोचनीया कहा गया है। वैरोचन अग्निको कहते हैं। अग्निके स्थान मणिपूरमें छिन्नमस्ताका ध्यान किया जाता है और वज्रानाड़ीमें इनका प्रवाह होनेसे इन्हें वज्र वैरोचनीया कहते हैं। श्रीभैरवतन्त्रमें कहा गया है कि इनकी आराधनासे साधक जीवभावसे मुक्त होकर शिवभावको प्राप्त कर लेता है।
४-षोडशी
षोडशी माहेश्वरी शक्तिकी सबसे मनोहर श्रीविग्रहवाली सिद्ध देवी हैं। महाविद्याओंमें इनका चौथा स्थान है। सोलह अक्षरोंके मन्त्रवाली इन देवीकी अङ्गकान्ति उदीयमान सूर्यमण्डलकी आभाकी भाँति है। इनकी चार भुजाएँ एवं तीन नेत्र हैं। ये शान्तमुद्रामें लेटे हुए सदाशिवपर स्थित कमलके आसनपर आसीन हैं। इनके चारों हाथोंमें क्रमशः पाश, अङ्कुश, धनुष और बाण सुशोभित हैं। वर देनेके लिये सदा सर्वदा तत्पर भगवतीका श्रीविग्रह सौम्य और हृदय दयासे आपूरित है। जो इनका आश्रय ग्रहण कर लेते हैं, उनमें और ईश्वरमें कोई भेद नहीं रह जाता है। वस्तुतः इनकी महिमा अवर्णनीय है। संसारके समस्त मन्त्र-तन्त्र इनकी आराधना करते हैं। वेद भी इनका वर्णन करनेमें असमर्थ हैं। भक्तोंको ये प्रसन्न होकर सब कुछ दे देती हैं, अभीष्ट तो सीमित अर्थवाच्य है।
 
प्रशान्त हिरण्यगर्भ ही शिव हैं और उन्हींकी शक्ति षोडशी है। तन्त्रशास्त्रोंमें षोडशी देवीको पञ्चवक्त्र अर्थात् पाँच मुखोंवाली बताया गया है। चारों दिशाओंमें चार और एक ऊपरकी ओर मुख होनेसे इन्हें पञ्चवक्त्रा कहा जाता है। देवीके पाँचों मुख तत्पुरुष, सद्योजात, वामदेव अघोर और ईशान शिवके पाँचों रूपोंके प्रतीक हैं। पाँचों दिशाओंके रंग क्रमशः हरित, रक्त, धून, नील और पीत होनेसे ये मुख भी उन्हीं रंगोंके हैं। देवीके दस हाथोंमें क्रमशः अभय, टंक, शूल, वज्र, पाश, खड्ग, अङ्कुश, घण्टा, नाग और अग्नि हैं। इनमें षोडश कलाएँ पूर्णरूपसे विकसित हैं, अतएव ये षोडशी कहलाती हैं।
 
षोडशीको श्रीविद्या भी माना जाता है। इनके ललिता, राज राजेश्वरी, महात्रिपुरसुन्दरी, बालापञ्चदशी आदि अनेक नाम हैं। इन्हें आद्याशक्ति माना जाता है। अन्य विद्याएँ भोग या मोक्षमेंसे एक ही देती हैं। ये अपने उपासकको भुक्ति और मुक्ति दोनों प्रदान करती हैं। इनके स्थूल, सूक्ष्म, पर तथा तुरीय चार रूप हैं।
 
एक बार पराम्बा पार्वतीजीने भगवान् शिवसे पूछा- भगवन्! आपके द्वारा प्रकाशित तन्त्रशास्त्रकी साधनासे जीवके आधि-व्याधि, शोक-संताप, दीनता-हीनता तो दूर हो जायेंगे, किन्तु गर्भवास और मरणके असह्य दुःखकी निवृत्ति तो इससे नहीं होगी। कृपा करके इस दुःखसे निवृत्ति और मोक्षपदकी प्राप्तिका कोई उपाय बताइये।’ परम कल्याणमयी पराम्बाके अनुरोधपर भगवान् शंकरने षोडशी श्रीविद्या-साधना-प्रणालीको प्रकट किया। भगवान् शङ्कराचार्यने भी श्रीविद्याके रूपमें इन्हीं षोडशी देवीकी उपासना की थी। इसीलिये आज भी सभी शाङ्करपीठोंमें भगवती षोडशी राजराजेश्वरी त्रिपुरसुन्दरीकी श्रीयन्त्रके रूपमें आराधना चली आ रही है। भगवान् शङ्कराचार्यने सौन्दर्यलहरीमें षोडशी श्रीविद्याकी स्तुति करते हुए कहा है कि ‘अमृतके समुद्रमें एक मणिका द्वीप है, जिसमें कल्पवृक्षोंकी बारी है, नवरत्नोंके नौ परकोटे हैं; उस वनमें चिन्तामणिसे निर्मित महलमें ब्रह्ममय सिंहासन है, जिसमें पञ्चकृत्यके देवता ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र और ईश्वर आसनके पाये हैं और सदाशिव फलक हैं। सदाशिवके नाभिसे निर्गत कमलपर विराजमान भगवती षोडशी त्रिपुरसुन्दरीका जो ध्यान करते हैं, वे धन्य हैं। भगवतीके प्रभावसे उन्हें भोग और मोक्ष दोनों सहज ही उपलब्ध हो जाते हैं।’ भैरवयामल तथा शक्तिलहरीमें इनकी उपासनाका विस्तृत परिचय मिलता है। दुर्वासा इनके परमाराधक थे। इनकी उपासना श्रीचक्रमें होती है।
५- भुवनेश्वरी
देवीभागवतमें वर्णित मणिद्वीपकी अधिष्ठात्री देवी हादेखा (ह्रीं) मन्त्रकी स्वरूपाशक्ति और सृष्टिक्रममें महालक्ष्मीस्वरूपा – आदिशक्ति भगवती भुवनेश्वरी भगवान् शिवके समस्त लीला- विलासकी सहचरी हैं। जगदम्बा भुवनेश्वरीका स्वरूप सौम्य और अंगकान्ति अरुण है। भक्तोंको अभय और समस्त सिद्धियाँ प्रदान करना इनका स्वाभाविक गुण है। दशमहाविद्याओंमें ये पाँचवें स्थानपर परिगणित हैं। देवीपुराणके अनुसार मूल प्रकृतिका दूसरा नाम ही भुवनेश्वरी है। ईश्वररात्रिमें जब ईश्वरके जगद्रूप व्यवहारका लोप हो जाता है, उस समय केवल ब्रह्म अपनी अव्यक्त प्रकृतिके साथ शेष रहता है, तब ईश्वररात्रिकी अधिष्ठात्री देवी भुवनेश्वरी कहलाती हैं। अंकुश और पाश इनके मुख्य आयुध हैं। अंकुश नियन्त्रणका प्रतीक है और पाश राग अथवा आसक्तिका प्रतीक है। इस प्रकार सर्वरूपा मूल प्रकृति ही भुवनेश्वरी हैं, जो विश्वको वमन करनेके कारण वामा, शिवमयी होनेसे ज्येष्ठा तथा कर्म-नियन्त्रण, फलदान और जीवोंको दण्डित करनेके कारण रौद्री कही जाती हैं। भगवान् शिवका वाम भाग ही भुवनेश्वरी कहलाता है। भुवनेश्वरीके संगसे ही
 
भुवनेश्वर सदाशिवको सर्वेश होनेकी योग्यता प्राप्त होती है। महानिर्वाणतन्त्रके अनुसार सम्पूर्ण महाविद्याएँ भगवती भुवनेश्वरीकी सेवामें सदा संलग्न रहती हैं। सात करोड़ महामन्त्र इनकी सदा आराधना करते हैं। दशमहाविद्याएँ ही दस सोपान हैं। काली तत्त्वसे निर्गत होकर कमला तत्त्वतककी दस स्थितियाँ हैं, जिनसे अव्यक्त भुवनेश्वरी व्यक्त होकर ब्रह्माण्डका रूप धारण कर सकती हैं तथा प्रलयमें कमलासे अर्थात् व्यक्त जगत्से क्रमशः लय होकर कालीरूपमें मूल प्रकृति बन जाती हैं। इसलिये इन्हें कालकी जन्मदात्री भी कहा जाता है। दुर्गासप्तशतीके ग्यारहवें अध्यायके मंगलाचरणमें भी कहा गया है कि ‘मैं भुवनेश्वरी देवीका ध्यान करता हूँ। उनके श्रीअंगोंकी शोभा प्रातःकालके सूर्यदेवके समान अरुणाभ है। उनके मस्तकपर चन्द्रमाका मुकुट है। तीन नेत्रोंसे युक्त देवीके मुखपर मुस्कानकी छटा छायी रहती है। उनके हाथोंमें पाश, अङ्कुश, वरद एवं अभय मुद्रा शोभा पाते हैं।
 
इस प्रकार बृहन्नीलतन्त्रकी यह धारणा पुराणोंके विवरणोंसे भी पुष्ट होती है कि प्रकारान्तरसे काली और भुवनेशी दोनोंमें अभेद है। अव्यक्त प्रकृति भुवनेश्वरी ही रक्तवर्णा काली हैं। देवी भागवतके अनुसार दुर्गम नामक दैत्यके अत्याचारसे संतप्त होकर देवताओं और ब्राह्मणोंने हिमालयपर सर्वकारणस्वरूपा भगवती भुवनेश्वरीकी ही आराधना की थी। उनकी आराधनासे प्रसन्न होकर भगवती भुवनेश्वरी तत्काल प्रकट हो गयीं। वे अपने हाथोंमें बाण, कमल-पुष्प तथा शाक-मूल लिये हुए थीं। उन्होंने अपने नेत्रोंसे अश्रुजलकी सहस्त्रों धाराएँ प्रकट कीं। इस जलसे भूमण्डलके सभी प्राणी तृप्त हो गये। समुद्रों तथा सरिताओंमें अगाध जल भर गया और समस्त औषधियाँ सिंच गयीं। अपने हाथमें लिये गये शाकों और फल-मूलसे प्राणियोंका पोषण करनेके कारण भगवती भुवनेश्वरी ही ‘शताक्षी’ तथा ‘शाकम्भरी’ नामसे विख्यात हुई। इन्होंने ही दुर्गमासुरको युद्धमें मारकर उसके द्वारा अपहृत वेदोंको देवताओंको पुनः सौपा था। उसके बाद भगवती भुवनेश्वरीका एक नाम दुर्गा प्रसिद्ध हुआ।
 
भगवती भुवनेश्वरीकी उपासना पुत्र-प्राप्तिके लिये विशेष फलप्रदा है। रुद्रयामलमें इनका कवच, नीलसरस्वतीतन्त्रमें इनका हृदय तथा महातन्त्रार्णवमें इनका सहस्त्रनाम संकलित है।
 

।।बोलो सच्चे दरवार की जय।।

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