दशमहाविद्या देवी के नाम । Dash Mahavidhya Devi Ke Naam

दशमहाविद्या देवी के नाम ।

दशमहाविद्या देवी के नाम । Dash Mahavidhya Devi Ke Naam

६-त्रिपुरभैरवी

क्षीयमान विश्वके अधिष्ठान दक्षिणामूर्ति कालभैरव हैं। उनकी शक्ति ही त्रिपुरभैरवी है। ये ललिता या महात्रिपुरसुन्दरीकी रथवाहिनी हैं। ब्रह्माण्डपुराणमें इन्हें गुप्त योगिनियोंकी अधिष्ठात्री देवीके रूपमें चित्रित किया गया है। मत्स्यपुराणमें इनके त्रिपुरभैरवी, कोलेशभैरवी, रुद्रभैरवी, चैतन्यभैरवी तथा नित्याभैरवी आदि रूपोंका वर्णन प्राप्त होता है। इन्द्रियोंपर विजय और सर्वत्र उत्कर्षकी प्राप्तिहेतु त्रिपुरभैरवीकी उपासनाका वर्णन शास्त्रोंमें मिलता है। महाविद्याओंमें इनका छठा स्थान है। त्रिपुरभैरवीका मुख्य उपयोग घोर कर्ममें होता है

इनके ध्यानका उल्लेख दुर्गासप्तशतीके तीसरे अध्यायमें महिषासुर वधके प्रसंगमें हुआ है। इनका रंग लाल है। ये लाल वस्त्र पहनती हैं, गलेमें मुण्डमाला धारण करती हैं और स्तनोंपर रक्त चन्दनका लेप करती हैं। ये अपने हाथोंमें जपमाला, पुस्तक तथा वर और अभय मुद्रा धारण करती हैं। ये कमलासनपर विराजमान हैं। भगवती त्रिपुरभैरवीने ही मधुपान करके महिषका हदय विदीर्ण किया था। रुद्रयामल एवं भैरवीकुलसर्वस्वमें इनकी उपासना तथा कवचका उल्लेख मिलता है। संकटोंसे मुक्तिके लिये भी इनकी उपासना करनेका विधान है।

 

घोर कर्मके लिये कालकी विशेष अवस्थाजनित मानोंको शान्त कर देनेवाली शक्तिको ही त्रिपुरभैरवी कहा जाता है। इनका अरुण वर्ण विमर्शका प्रतीक है। इनके गलेमें सुशोभित मुण्डमाला ही वर्णमाला है। देवीके रक्तलिप्त पयोधर रजोगुणसम्पन्न सृष्टि-प्रक्रियाके प्रतीक हैं। अक्षजपमाला वर्णसमाम्नायकी प्रतीक है। पुस्तक ब्रह्मविद्या है, त्रिनेत्र वेदत्रयी हैं तथा स्मिति हास करुणा है।

आगम ग्रन्थोंके अनुसार त्रिपुरभैरवी एकाक्षररूप (प्रणव) हैं। इनसे सम्पूर्ण भुवन प्रकाशित हो रहे हैं तथा अन्तमें इन्हींमें लय हो जायेंगे। ‘अ’ से लेकर विसर्गतक सोलह वर्ण भैरव कहलाते हैं तथा क से क्ष तकके वर्ण योनि अथवा भैरवी कहे जाते हैं। स्वच्छन्दोद्योतके प्रथम पटलमें इसपर विस्तृत प्रकाश डाला गया है। यहाँपर त्रिपुरभैरवीको योगीश्वरीरूपमें उमा बतलाया गया है। इन्होंने भगवान् शंकरको पतिरूपमें प्राप्त करनेके लिये कठोर तपस्या करनेका दृढ़ निर्णय लिया था। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी इनकी तपस्याको देखकर दंग रह गये। इससे सिद्ध होता है कि भगवान् शंकरकी उपासनामें निरत उमाका दृढ़निश्चयी स्वरूप ही त्रिपुरभैरवीका परिचायक है। त्रिपुरभैरवीकी स्तुतिमें कहा गया है कि भैरवी सूक्ष्म वाक् तथा जगत्के मूल कारणकी

 

अधिष्ठात्री है। त्रिपुरभैरवीके अनेक भेद हैं; जैसे सिद्धिभैरवी, चैतन्यभैरवी, भुवनेश्वरीभैरवी, कमलेश्वरीभैरवी, कामेश्वरीभैरवी, षट्कृटाभैरवी, नित्याभैरवी, कोलेशीभैरवी, रुद्रभैरवी आदि।

 

सिद्धिभैरवी उत्तराम्नाय पीठकी देवी हैं। नित्याभैरवी पश्चिमाम्नाय पीठकी देवी हैं, इनके उपासक स्वयं भगवान् शिव हैं। रुद्रभैरवी दक्षिणाम्नाय पीठकी देवी हैं। इनके उपासक भगवान् विष्णु हैं। त्रिपुरभैरवीके भैरव बटुक हैं। मुण्डमालातन्त्रानुसार त्रिपुरभैरवीको भगवान् नृसिंहकी अभिन्न शक्ति बताया गया है। सृष्टिमें परिवर्तन होता रहता है। इसका मूल कारण आकर्षण- विकर्षण है। इस सृष्टिके परिवर्तनमें क्षण-क्षणमें होनेवाली भावी क्रियाकी अधिष्ठातृशक्ति ही वैदिक दृष्टिसे त्रिपुरभैरवी कही जाती हैं। त्रिपुरभैरवीकी रात्रिका नाम कालरात्रि तथा भैरवका नाम कालभैरव है।

 

                 ।। ७-धूमावती ।।

धूमावती देवी महाविद्याओंमें सातवें स्थानपर परिगणित हैं। इनके सन्दर्भमें कथा आती है कि एकवार भगवती पार्वती भगवान् शिवके साथ कैलास पर्वतपर बैठी हुई थीं। उन्होंने महादेवसे अपनी क्षुधाका निवारण करनेका निवेदन किया। कई बार माँगनेपर भी जब भगवान् शिवने उस ओर ध्यान नहीं दिया, तब उन्होंने महादेवको ही उठाकर निगल लिया। उनके शरीरसे धूमराशि निकली। शिवजीने उस समय पार्वतीसे कहा कि ‘आपकी सुन्दर मूर्ति धूऐसे ढक जानेके कारण धूमावती या धूम्रा कही जायगी।’ धूमावती महाशक्ति अकेली है तथा स्वयं नियन्त्रिका है। इसका कोई स्वामी नहीं है, इसलिये इसे विधवा कहा गया है। दुर्गासप्तशतीके अनुसार इन्होंने ही प्रतिज्ञा की थी ‘जो मुझे युद्धमें जीत लेगा तथा मेरा गर्व दूर कर देगा, वही मेरा पति होगा। ऐसा कभी नहीं हुआ, अतः यह कुमारी हैं’, ये धन या पतिरहित हैं अथवा अपने पति महादेवको निगल जानेके कारण विधवा हैं।

 

नारदपाञ्चरात्रके अनुसार इन्होंने अपने शरीरसे उग्रचण्डिकाको प्रकट किया था, जो सैकड़ों गीदड़ियोंकी तरह आवाज करनेवाली थी, शिवको निगलनेका तात्पर्य है, उनके स्वामित्वका निषेध। असुरोंके कच्चे मांससे इनकी अंगभूता शिवाएँ तृप्म हुई, यही इनकी भूखका रहस्य है। इनके ध्यानमें इन्हें विवर्ण, चंचल, काले रंगवाली, मैले कपड़े धारण करनेवाली, खुले केशोंवाली, विधवा, काकध्वजवाले रथपर आरूढ़, हाथमें सूप धारण किये, भूख-प्याससे व्याकुल तथा निर्मम आँखोंवाली बताया गया है। स्वतन्त्रतन्त्रके अनुसार सतीने जब दक्षयज्ञमें योगाग्निके द्वारा अपने-आपको भस्म कर दिया, तब उस समय जो धुआँ उत्पन्न हुआ उससे धूमावती-विग्रहका प्राकट्य हुआ था।

 

धूमावतीकी उपासना विपत्ति-नाश, रोग निवारण, युद्ध-जय, उच्चाटन तथा मारण आदिके लिये की जाती है। शाक्तप्रमोदमें कहा गया है कि इनके उपासकपर दुष्टाभिचारका प्रभाव नहीं पड़ता है। संसारमें रोग-दुःखके कारण चार देवता हैं। ज्वर, उन्माद तथा दाह रुद्रके कोपसे, मूच्र्छा, विकलाङ्गता यमके कोपसे, धूल, गठिया, लकवा, वरुणके कोपसे तथा शोक, कलह, क्षुधा, तृषा आदि निऋतिके कोपसे होते हैं। शतपथब्राह्मणके अनुसार धूमावती और निऋति एक हैं। यह लक्ष्मीकी ज्येष्ठा है, अतः ज्येष्ठा नक्षत्रमें उत्पन्न व्यक्ति जीवनभर दुःख भोगता है।

 

तन्त्र ग्रन्थोंके अनुसार धूमावती उग्रतारा ही हैं, जो धूम्रा होनेसे धूमावती कही जाती हैं। दुर्गासप्तशतीमें वाभ्रवी और तामसीनामसे इन्हींकी चर्चा की गयी है। ये प्रसन्न होकर रोग और शोकको नष्ट कर देती हैं तथा कुपित होनेपर समस्त सुखों और कामनाओंको नष्ट कर देती हैं। इनकी शरणागतिसे विपत्तिनाश तथा सम्पन्नता प्राप्त होती है। ऋग्वेदोक्त रात्रिसूक्तमें इन्हें ‘सुतरा’ कहा गया है। सुतराका अर्थ सुखपूर्वक तारनेयोग्य है। तारा या तारिणीको इनका पूर्वरूप बतलाया गया है। इसलिये आगमोंमें इन्हें अभाव और संकटको दूरकर सुख प्रदान करनेवाली भूति कहा गया है। धूमावती स्थिरप्रज्ञताकी प्रतीक है। इनका काकध्वज वासनाग्रस्त मन है, जो निरन्तर अतृप्त रहता है। जीवकी दीनावस्था भूख, प्यास, कलह, दरिद्रता आदि इसकी क्रियाएँ हैं, अर्थात् वेदकी शब्दावलीमें धूमावती कद्रु है, जो वृत्रासुर आदिको पैदा करती है।

 

                 ८-वगलामुखी

व्यष्टिरूपमें शत्रुओंको नष्ट करनेकी इच्छा रखनेवाली तथा समष्टिरूपमें परमात्माकी संहार- शक्ति ही बगला है। पीताम्बराविद्याके नामसे विख्यात वगलामुखीकी साधना प्रायः शत्रुध्यसे मुक्ति और वाक्-सिद्धिके लिये की जाती है। इनकी उपासनामें हरिद्रामाला, पीत-पुष्प एवं पीतवस्त्रका विधान है। महाविद्याओंमें इनका आठवाँ स्थान है। इनके ध्यानमें बताया गया है कि ये सुधासमुद्रके मध्यमें स्थित मणिमय मण्डपमें रत्नमय सिंहासनपर विराज रही हैं। ये पीतवर्णके वस्त्र, पीत आभूषण तथा पीले पुष्पोंकी ही माला धारण करती हैं। इनके एक हाथमें शत्रुकी जिह्वा और दूसरे हाथमें मुद्रर है।

 

स्वतन्त्रतन्त्रके अनुसार भगवती वगलामुखीके प्रादुर्भावकी कथा इस प्रकार है- सत्ययुगमें सम्पूर्ण जगत्‌को नष्ट करनेवाला भयंकर तूफान आया। प्राणियोंके जीवनपर आये संकटको देखकर भगवान् महाविष्णु चिन्तित हो गये। वे सौराष्ट्र देशमें हरिद्रा सरोवरके समीप जाकर भगवतीको प्रसन्न करनेके लिये तप करने लगे। श्रीविद्याने उस सरोवरसे वगलामुखीरूपमें प्रकट होकर उन्हें दर्शन दिया तथा विध्वंसकारी तूफानका तुरन्त स्तम्भन कर दिया। वगलामुखी महाविद्या भगवान् विष्णुके तेजसे युक्त होनेके कारण वैष्णवी है। मंगलवारयुक्त चतुर्दशीकी अर्धरात्रिमें इनका प्रादुर्भाव हुआ था। इस विद्याका उपयोग दैवी प्रकोपकी शान्ति, धन-धान्यके लिये पौष्टिक कर्म एवं आभिचारिक कर्मके लिये भी होता है। यह भेद केवल प्रधानताके अभिप्रायसे है; अन्यथा इनकी उपासना भोग और मोक्ष दोनोंकी सिद्धिके लिये की जाती है।

 

यजुर्वेदकी काठकसंहिताके अनुसार दसों दिशाओंको प्रकाशित करनेवाली, सुन्दर स्वरूपधारिणी ‘विष्णुपत्नी’ त्रिलोक जगत्की ईश्वरी मानोता कही जाती है। स्तम्भनकारिणी शक्ति व्यक्त और अव्यक्त सभी पदार्थोकी स्थितिका आधार पृथ्वीरूपा शक्ति है। वगला उसी स्तम्भनशक्तिकी अधिष्ठात्री देवी है। शक्तिरूपा वगलाकी स्तम्भनशक्तिसे द्युलोक वृष्टि प्रदान करता है। उसीसे आदित्यमण्डल ठहरा हुआ है और उसीसे स्वर्गलोक भी स्तम्भित है। भगवान् श्रीकृष्णने भी गीतामें ‘विष्टभ्याहमिदं कृत्स्त्रमेकांशेन स्थितो जगत्’ कहकर उसी शक्तिका समर्थन किया है। तन्त्रमें वही स्तम्भनशक्ति वगलामुखीके नामसे जानी जाती है।

 

श्रीवगलामुखीको ‘ब्रह्मास्त्र ‘के नामसे भी जाना जाता है। ऐहिक या पारलौकिक देश अथवा समाजमें दुःखद अरिष्टोंके दमन और शत्रुओंके शमनमें वगलामुखीके समान कोई मन्त्र नहीं है। चिरकालसे साधक इन्हीं महादेवीका आश्रय लेते आ रहे हैं। इनके बडवामुखी, जातवेदमुखी, उल्कामुखी, ज्वालामुखी तथा बृहद्भानुमुखी पाँच मन्त्रभेद हैं। कुण्डिकातन्त्रमें बगलामुखीके जपके विधानपर विशेष प्रकाश डाला गया है। मुण्डमालातन्त्रमें तो यहाँतक कहा गया है कि इनकी सिद्धिके लिये नक्षत्रादि विचार और कालशोधनकी भी आवश्यकता नहीं है।

 

वगला महाविद्या ऊर्ध्वानायके अनुसार ही उपास्य है। इस आम्नायमें शक्ति केवल पूज्य मानी जाती है, भोग्य नहीं। श्रीकुलकी सभी महाविद्याओंकी उपासना गुरुके सान्निध्यमें रहकर सतर्कतापूर्वक सफलताकी प्राप्ति होनेतक करते रहना चाहिये। इसमें ब्रह्मचर्यका पालन और बाहर-भीतरकी पवित्रता अनिवार्य है। सर्वप्रथम ब्रह्माजीने वगला महाविद्याकी उपासना की थी। ब्रह्माजीने इस विद्याका उपदेश सनकादिक मुनियोंको किया। सनत्कुमारने देवर्षि नारदको और नारदने सांख्यायन नामक परमहंसको इसका उपदेश किया। सांख्यायनने छत्तीस पटलोंमें उपनिबद्ध वगलातन्त्रकी रचना की। वगलामुखीके दूसरे उपासक भगवान् विष्णु और तीसरे उपासक परशुराम हुए तथा परशुरामने यह विद्या आचार्य द्रोणको बतायी।

।।९-मातङ्गी।।

भतङ्ग शिवका नाम है, इनकी शक्ति मातङ्गी है। मातष्ट्रीके ध्यानमें बताया गया है कि ये श्यामवर्णा है और चनामाको मस्तकपर धारण किये हुए हैं। भगवती मातङ्गी त्रिनेत्रा, रवमय सिंहासनपर आसीन, नीलकमलके समान कान्निवाली तथा राक्षस-समूहरूप अरण्यको भस्म करनेमें दावानलके समान हैं। इन्होंने अपनी चार भुजाओंमें पाश, अङ्कुश, खेटक और खड्ग धारण किया है। ये असुरोंको मोहित करनेवाली एवं भक्तोंको अभीष्ट फल ए फल देनेवाली हैं। गृहस्थ- जीवनको सुखी बनाने, पुरुषार्थ-सिद्धि और वाग्विलासमें पारंगत होनेके लिये मातट्रीकी साधना श्रेयस्कर है। महाविद्याओंमें ये नवें स्थानपर परिगणित हैं।

नारदपाश्चरात्रके बारहवें अध्यायमें शिवको चाण्डाल तथा शिवाको उच्छिष्ट चाण्डाली कहा गया है। इनका ही नाम मातङ्गी है। पुराकालमें मतङ्ग नामक मुनिने नाना वृक्षोंसे परिपूर्ण कदम्ब- वनमें सभी जीवोंको वशमें करनेके लिये भगवती त्रिपुराकी प्रसन्नताहेतु कठोर तपस्या की थी, उस समय त्रिपुराके नेत्रसे उत्पन्न तेजने एक श्यामल नारी-विग्रहका रूप धारण कर लिया। इन्हें राजमातंगिनी कहा गया। यह दक्षिण तथा पश्चिमाप्नायकी देवी हैं। राजमातङ्गी, सुमुखी, वश्यमातङ्गी तथा कर्णमातङ्गी इनके नामान्तर हैं। मातङ्गीके भैरवका नाम मतङ्ग है। ब्रह्मयामल इन्हें मतङ्ग मुनिकी कन्या बताता है।

दशमहाविद्याओंमें मातङ्गीकी उपासना विशेषरूपसे वाक्सिद्धिके लिये की जाती है। पुरश्चर्यार्णवमें कहा गया है- अक्षवक्ष्ये महादेवीं मातङ्गीं सर्वसिद्धिदाम् । अस्याः सेवनमात्रेण वाक्सिद्धिं लभते ध्रुवम् ॥

 

मातङ्गीके स्थूलरूपात्मक प्रतीक विधानको देखनेसे यह भलीभाँति ज्ञात हो जाता है कि ये पूर्णतया वाग्देवताकी ही मूर्ति हैं। मातङ्गीका श्यामवर्ण परावाक् बिन्दु है। उनका त्रिनयन सूर्य, सोम और अग्नि है। उनकी चार भुजाएँ चार वेद हैं। पाश अविद्या है, अंकुश विद्या है, कर्मराशि दण्ड है। शब्द-स्पर्शादि गुण कृपाण है अर्थात् पञ्चभूतात्मक सृष्टिके प्रतीक हैं। कदम्बवन ब्रह्माण्डका प्रतीक है। योगराजोपनिषद्में ब्रह्मलोकको कदम्बगोलाकार कहा गया है- ‘कदम्बगोलाकारं ब्रह्मलोकं व्रजन्ति ते’ । भगवती मातङ्गीका सिंहासन शिवात्मक महामञ्च या त्रिकोण है। उनकी मूर्ति सूक्ष्मरूपमें यन्त्र तथा पररूपमें भावनामात्र है।

 

दुर्गासप्तशतीके सातवें अध्यायमें भगवती मातङ्गीके ध्यानका वर्णन करते हुए कहा गया है कि वे रत्नमय सिंहासनपर बैठकर पढ़ते हुए तोतेका मधुर शब्द सुन रही हैं। उनके शरीरका वर्ण श्याम है। वे अपना एक पैर कमलपर रखी हुई हैं। अपने मस्तकपर अर्धचन्द्र तथा गलेमें कल्हार पुष्पोंकी माला धारण करती हैं। वीणा बजाती हुई भगवती मातङ्गीके अङ्गमें कसी हुई चोली शोभा पा रही है। वे लाल रंगकी साड़ी पहने तथा हाथमें शंखमय पात्र लिये हुए हैं। उनके वदनपर मधुका हलका-हलका प्रभाव जान पड़ता है और ललाटमें विन्दी शोभा पा रही है। इनका वलकी धारण करना नादका प्रतीक है। तोतेका पढ़ना ‘ह्रीं’ वर्णका उच्चारण करना है, जो बीजाक्षरका प्रतीक है। कमल वर्णात्मक सृष्टिका प्रतीक है। शंखपात्र ब्रह्मरन्ध्र तथा मधु अमृतका प्रतीक है। रक्तवस्त्र अग्नि या ज्ञानका प्रतीक है। वाग्देवीके अर्थमें मातङ्गी यदि व्याकरणरूपा हैं तो शुक शिक्षाका प्रतीक है। चार भुजाएँ वेदचतुष्टय हैं। इस प्रकार तान्त्रिकोंकी भगवती मातङ्गी महाविद्या वैदिकोंकी सरस्वती ही हैं। तन्त्रग्रन्थोंमें इनकी उपासनाका विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है।

।।१०-कमला।।

श्रीमद्भागवतके आठवें स्कन्धके आठवें अध्यायमें कमलाके उद्भवकी विस्तृत कथा आयी है। देवताओं एवं असुरोंके द्वारा अमृत-प्राप्तिके उद्देश्यसे किये गये समुद्र-मन्थनके फलस्वरूप इनका प्रादुर्भाव हुआ था। इन्होंने भगवान् विष्णुको पतिरूपमें वरण किया था। महाविद्याओंमें ये दसवें स्थानपर परिगणित हैं। भगवती कमला वैष्णवी शक्ति हैं तथा भगवान् विष्णुकी लीला-महचरी हैं, अतः इनकी उपासना जगदाधार-शक्तिकी उपासना है। ये एक रूपमें समस्त भौतिक या प्राकृतिक सम्पत्तिकी अधिष्ठात्री देवी हैं और दूसरे रूपमें सच्चिदानन्दमयी लक्ष्मी हैं; जो भगवान् विष्णुसे अभिन्न हैं। देवता, मानव एवं दानव-सभी इनकी कृपाके बिना पल हैं। इसलिये आगम और निगम दोनोंमें इनकी उपासना समानरूपसे वर्णित है। सभी देवता, राक्षस, मनुष्य, सिद्ध और गन्धर्व इनकी कृपा-प्रसादके लिये लालायित रहते हैं।
 
महाविद्या कमलाके ध्यानमें बताया गया है कि इनकी कान्ति सुवर्णके समान है। हिमालयके सदृश श्वेत वर्णके चार हाथी अपने सूँड़में चार सुवर्ण कलश लेकर इन्हें स्नान करा रहे हैं। ये अपनी दो भुजाओंमें वर एवं अभय मुद्रा तथा दो भुजाओंमें दो कमल पुष्प धारण की हैं। इनके सिरपर सुन्दर किरीट तथा तनपर रेशमी परिधान सुशोभित है। ये कमलके सुन्दर आसनपर आसीन हैं।
 
समृद्धिकी प्रतीक महाविद्या कमलाकी उपासना स्थिर लक्ष्मीकी प्राप्ति तथा नारी-पुत्रादिके मौख्यके लिये की जाती है। कमलाको लक्ष्मी तथा षोडशी भी कहा जाता है। भार्गवोंके द्वारा पूजित होनेके कारण इनका एक नाम भार्गवी है। इनकी कृपासे पृथ्वीपतित्व तथा पुरुषोत्तमत्व दोनोंकी प्राप्ति हो जाती है। भगवान् आद्य शंकराचार्यके द्वारा विरचित कनकधारास्तोत्र और श्रीसूक्तका पाठ, कमलगट्टोंकी मालापर श्रीमन्त्रका जप, बिल्वपत्र तथा बिल्वफलके हवनसे कमलाकी विशेष कृपा प्राप्त होती है। स्वतन्त्रतन्त्रमें कोलासुरके वधके लिये इनका प्रादुर्भाव होना बताया गया है। वाराहीतन्त्रके अनुसार प्राचीनकालमें ब्रह्मा, विष्णु तथा शिवद्वारा पूजित होनेके कारण कमलाका एक नाम त्रिपुरा प्रसिद्ध हुआ। कालिकापुराणमें कहा गया है कि त्रिपुर शिवकी भार्या होनेसे इन्हें त्रिपुरा कहा जाता है। शिव अपनी इच्छासे त्रिधा हो गये। उनका ऊर्ध्व भाग गौरवर्ण, चार भुजावाला, चतुर्मुख ब्रह्मरूप कहलाया। मध्य भाग नीलवर्ण, एकमुख और चतुर्भुज विष्णु कहलाया तथा अधोभाग स्फटिक वर्ण, पञ्चमुख और चतुर्भुज शिव कहलाया। इन तीनों शरीरोंके योगसे शिव त्रिपुर और उनकी शक्ति त्रिपुरा कही जाती है। चिन्तामणि गृहमें इनका निवास है। भैरवयामल तथा शक्तिलहरीमें इनके रूप तथा पूजा-विधानका विस्तृत वर्णन किया गया है। इनकी उपासनासे समस्त सिद्धियाँ सहज ही प्राप्त हो जाती हैं।
 
पुरुषसूक्तमें ‘श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पल्या’ कहकर कमलाको परम पुरुष भगवान् विष्णुकी पत्नी बतलाया गया है। अश्व, रथ, हस्तिके साथ उनका सम्बन्ध राज्य-वैभवका सूचक है, पद्मस्थित होने तथा पद्मवर्णा होनेका भी संकेत श्रुतिमें है। भगवच्छक्ति कमलाके पाँच कार्य हैं-तिरोभाव, सृष्टि, स्थिति, संहार और अनुग्रह। भगवती कमला स्वयं कहती हैं कि नित्य निर्दोष परमात्मा नारायणके सब कार्य मैं स्वयं करती हूँ। इस प्रकार कालीसे लेकर कमलातक दशमहाविद्याएँ सृष्टि और व्यष्टि, गति, स्थिति, विस्तार, भरण-पोषण, नियन्त्रण, जन्म-मरण, उन्नति-अवनति, बन्धन तथा मोक्षकी अवस्थाओंकी प्रतीक हैं। ये अनेक होते हुए भी वस्तुतः परमात्माकी एक ही शक्ति हैं।

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